advertisement
आप जानते ही हैं कि भारत के खिलाड़ी कॉमनवेल्थ (Commonwealth Games 2022) में मेडल बरसा रहे हैं. लेकिन क्या इन मेडल्स के पीछे की कहानियां आप तक पहुंच रही हैं? हम आपके लिए संघर्ष से भरी तीन कहानियां लेकर आए. इस हफ्ते 'Video Game' में.
पहली कहानी तेजस्विन शंकर की. तेजस्विन ने इस साल CWG में भारत के लिए पहला एथलेटिक्स में मेडल जीता. वे मेंस हाई जम्प इवेंट में ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम करने में कामयाब रहे, लेकिन मेडल जीतना छोड़ दीजिए, बर्मिंघम पहुंचने के लिए तेजस्विन को अपने ही फेडरेशन के खिलाफ कोर्ट में लड़ाई लड़नी पड़ी.
कॉमनवेल्थ शुरू होने से पहले सोशल मीडिया पर ये फोटो वायरल हुई. इसमें तेजस्विन दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में कुत्तों के सामने प्रैक्टिस करते हुए नजर आ रहे हैं. खैर, उनके लिए समस्या सिर्फ ये कुत्ते नहीं थे बल्कि इसी समय वे फेडरेशन के खिलाफ भी लड़ रहे थे. फेडरेशन ने बर्मिंघम जाने वाले शुरुआती स्क्वॉड से नियमों का हवाला देकर उन्हें बाहर कर दिया. तेजस्विन ने इन खेलों के लिए क्वालिफाई कर लिया था, लेकिन फेडरेशन ने दलील दी कि उन्होंने ये क्ववालिफिकेशन अमेरिका में हुए NCAA चैंपियनशिप में हासिल की थी. इस केस में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्देश के बाद वे बर्मिंघम जा पाए, लेकिन कितनी हैरानी होती है जब हम सुनते हैं कि खिलाड़ी को खेल के मैदान पर लड़ने के लिए भी कोर्ट में लड़ना पड़ रहा है.
ये हैं 20 साल के अचिंता शेउली. इन्होंने पुरुषों के 73 किलो वर्ग में रिकॉर्ड 313 किलो वजन उठाकर गोल्ड जीता है. लेकिन अचिंता को सोने की चमक देखने से पहले बहुत अंधेरों से होकर गुजरा पड़ा. उनके पिता मजदूरी करके परिवार का पेट पालते थे. 2013 में पिता की मौत हो गई. अचिंता के बड़े भाई आलोक भी उस समय वेटलिफ्टिंग करते थे लेकिन पिता की मौत के बाद परिवार का खर्च चलाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई. इसका नतीजा ये रहा कि आलोक को वेटलिफ्टिंग छोड़नी पड़ी. घर का खर्च चलाने के लिए मां सिलाई का काम करने लगी. अचिंता के सामने भी दो रास्ते थे.
ये तो थी फेडरेशन के साथ स्ट्रगल की कहानी, अब उनकी कहानी, जिनके लिए कहा जाता है - मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है, पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है.
20 साल के अचिंता शेउली. इन्होंने पुरुषों के 73 किलो वर्ग में रिकॉर्ड 313 किलो वजन उठाकर गोल्ड जीता है. लेकिन अचिंता को सोने की चमक देखने से पहले बहुत अंधेरों से होकर गुजरा पड़ा. उनके पिता मजदूरी करके परिवार का पेट पालते थे. 2013 में पिता की मौत हो गई. अचिंता के बड़े भाई आलोक भी उस समय वेटलिफ्टिंग करते थे लेकिन पिता की मौत के बाद परिवार का खर्च चलाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई.
इसका नतीजा ये रहा कि आलोक को वेटलिफ्टिंग छोड़नी पड़ी. घर का खर्च चलाने के लिए मां सिलाई का काम करने लगी. अचिंता के सामने भी दो रास्ते थे. या तो वे भी परिवार का साथ देने के लिए कहीं नौकरी ढूंढ लें या फिर अपने सपने को जीएं. आज अचिंता ने न सिर्फ अपना बल्कि देश का सपना सच किया है. कहानी अभी खत्म हुई नहीं हुई. जरा देखिए मेडल के जीतने के बाद अचिंता के बड़े भाई ने क्या कहा - "कोई नहीं जानता कि हमारे गांव का एक लड़का राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने गया है. राज्य के खेल मंत्री भी नहीं जानते, हमें सरकारी मदद की जरूरत है. हमें अभी नहीं पता कि वे मेडल जीतने के बाद कितना पैसा देंगे". साफ है कि सरकार को भी ट्विटर की बधाइयों से निकलकर इन खिलाड़ियों की आवाज सुनने की जरूरत है.
आपके लिए तीसरी और आखिरी कहानी हम लेकर आए हैं बॉक्सर नीतू घंघास की. नीतू अपना पहला कॉमनवेल्थ खेलने बर्मिंघम गईं. लेकिन नीतू शायद अपने गांव की गलियों के बाहर भी न निकल पाती अगर पिता का साथ न मिला होता. उनके पिता विधानसभा में नौकरी करते थे, लेकिन बेटी को बॉक्सर बनाने के लिए चार साल तक बिना वेतन के छुट्टी पर चले गए. उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि अपनी बेटी को पूरा समय दे सके. नीतू को हर रोज 20 किलोमीटर ड्राइव करके वे भिवानी बॉक्सिंग क्लब में ट्रेनिंग के लिए छोड़कर आते थे. नीतू कहती हैं, "मुझे अब समझ में आता है कि मेरे पिताजी के लिए कितना कठिन रहा होगा सब कुछ त्याग कर देना ताकि मैं नई ऊंचाइयों को छू सकूं. घर-खर्च के लिए वो अपने दोस्तों से उधार लिया करते थे."
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)