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वीडियो एडिटर: पूर्णेन्दु प्रीतम और मोहम्मद इरशाद आलम
अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा.
ये नारा वाजपेयी ने 1980 में दिया था. वाजपेयी के इस सपने को पूरा करने में पार्टी को 18 साल का लंबा वक्त लगा. लेकिन यहां तक पहुंचने के रास्ते में चीजें बदली भीं. विचारधारा के तौर पर भी और दूसरे नजरिए से भी.
बीजेपी हमेशा से हिंदुत्व का रोना नहीं रोती थी. 1980 के दौर में, हिंदुओं की एकता चुनावी न होकर एक सामाजिक मुद्दा था. लेकिन सिर्फ एक चुनाव क्या खराब हुआ, बीजेपी को उसकी विचारधारा मिल गई. 1977 के लोकसभा चुनावों में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी- जनता पार्टी.
जनता पार्टी, अलग-अलग राजनीतिक दलों का संगम थी जो हिंदुत्व, समाजवादी और कम्युनिस्ट स्कूलों की विचारधारा से बनी थी. लेकिन जल्द ही साफ हो गया कि ये डगमगाते गठबंधन वाली, यानी कि अस्थिर सरकार है. गठबंधन के टूटने के बाद वैचारिक मतभेद सामने आने लगे.
उसी साल दिसंबर में पार्टी ने मुंबई के बांद्रा में एक सम्मेलन किया. इस समारोह का उद्घाटन वाजपेयी ने किया. उन्होंने प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले की मूर्ति को माला पहनाई. वहीं, दलित नेता दत्तात्रेय राव शिंदे ने भूमि पूजन किया. प्रतीकों की ये राजनीति, किसी से छिपी नहीं थी.
आरएसएस और जनसंघ के कुछ बड़े नेताओं की मदद से नई पार्टी बीजेपी को सरकार में रहने का अनुभव था. फिर भी उन्होंने स्व-शासन, शक्ति का विकेंद्रीकरण और राजनीति नहीं लोकनीति की एक गांधीवादी समाजवादी विचारधारा को अपनाने का फैसला किया.
यही नहीं, उन्होंने पार्टी के संविधान में सेक्युलर शब्द को जोड़ने पर जोर दिया. लेकिन 1984 के चुनावों में बीजेपी को सिर्फ दो लोकसभा सीटें मिलीं. एक और दिक्कत की बात ये थी कि ग्वालियर सीट से पार्टी अध्यक्ष वाजपेयी, माधवराव सिंधिया से 2 लाख वोटों के बड़े अंतर से हार गए. इस अपमानजनक हार ने सब कुछ बदल दिया.
हालांकि, उदारवादी वाजपेयी पार्टी का चेहरा बने रहे. वहीं, लाल कृष्ण आडवाणी, बीजेपी और हिंदुत्व एजेंडे के पोस्टर बॉय बन गए. दोनों ने मिलकर रथ यात्रा शुरू की जो देश और बीजेपी की चुनावी किस्मत को बदलने वाली थी.
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