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वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी
किसानों और केंद्र सरकार के बीच की बातचीत का अभी तक मर्म ये था कि 'मई वे और हाई वे'. मतलब कि 'या तो जो हम कहें वो ठीक, या कुछ ठीक नहीं'. दोनों तरफ से यही रवैया था लेकिन अब 'रेफरी' बना देश का सुप्रीम कोर्ट. कोर्ट मैदान में आया और उसने कहा कि जिन तीन कृषि कानूनों का विरोध हो रहा है, उनके अमल को हम रोक रहे हैं. कानून को रद्द नहीं किया गया है. चार लोगों की एक कमेटी भी बनाई गई है, जो सभी पक्षों से बातचीत करके कोर्ट को बताएंगे.
पहली बात तो ये कि कार्यपालिका यानी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से बिलकुल नहीं कहा कि 'कानून बनाने का अधिकार हमारा है, आप उसमें क्यों दखल दे रहे हैं.' कोर्ट जो करना चाहता था, सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया है.
दूसरा ये कि किसान आंदोलन का जो मूल धड़ा है, जो 30-40 संगठन साथ मिलकर, तालमेल करके फैसले करते हैं उन्होंने ये संकेत दिए कि हमारा विवाद तो आपके साथ है ही नहीं, हम तो कोर्ट में गए नहीं. दरअसल इनमें से कुछ यूनियनें जो कोर्ट में चली गई थीं, उनके वकील कल हाजिर हुए थे, जिसमें प्रशांत भूषण, दुष्यंत दवे जैसे लोग शामिल हैं. आज वो लोग कोर्ट गए ही नहीं. कुछ और दूसरे यूनियन के नेता गए थे.
किसान नेताओं ने साफ कर दिया है कि आंदोलन वापस नहीं लेंगे और इस बात के लिए कोर्ट का धन्यवाद भी कहा है कि 'कम से कम आंदोलन वापस लेने को तो नहीं कहा.'
कोर्ट की सुनवाई के बाद किसान नेताओं की प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई थीं. राकेश सिंह टिकैत ने कहा, "कानून वापसी के बाद ही घर वापसी होगी." एक और बात पर कोर्ट में चर्चा हुई. 26 जनवरी को किसानों की ट्रेक्टर परेड की काफी चर्चा थी. इस पर महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर जिक्र हुआ लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहीं भी आंदोलन स्थगित करने के निर्देश नहीं दिए.
किसान नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट की तरफ से गठित की गई कमेटी पर भी आपत्ति जताई है. किसानों का कहना है कि कमेटी के चारों सदस्य कृषि कानूनों के समर्थन में हैं और ऐसे में इन लोगों से निष्पक्ष होकर रायशुमारी करके कोई रास्ता निकालने की उम्मीद हम नहीं रखते हैं.
कमेटी के चार सदस्यों में भूपिंदर सिंह मान उन किसान नेताओं में से हैं, जिन्हें पिछले दिनों कृषि मंत्री ने मिलने बुलाया था. दूसरे सदस्य अनिल घनवट शेतकरी संगठन के अध्यक्ष हैं और इन्होंने भारत बंद के ऐलान का विरोध किया था और कहा था कि 'कृषि कानून तो अच्छे हैं.'
कोर्ट ने किसान आंदोलन को लेकर सरकार को फटकार लगाई है, कानूनों के अमल पर रोक लगा दी है, लेकिन फिर भी किसान आशंकित लगते हैं या सुप्रीम कोर्ट से प्रभावित नहीं लगते हैं. तो ऐसा लगता है कि किसान नेताओं को कोर्ट के हस्तक्षेप पर कुछ शक है क्योंकि आठ-नौ दौर की बातचीत के बाद भी सरकार कानून वापस न लेने पर ही अड़ी थी.
इस पूरे मामले को राजनीतिक ढंग से समझने की जरूरत है. सरकार ने पहला ऐसा आंदोलन देखा है जो टूटा नहीं और चलता रहा, नेताओं में आपसी झगडे नहीं हुए. आंदोलन को बदनाम करने के लिए खालिस्तान से लेकर विदेशी पैसे तक के इल्जाम लगे लेकिन फिर भी आंदोलन बरकरार रहा. इससे सरकार को समझ नहीं आया कि इसे हैंडल कैसे करे और इस असहमति का जवाब कैसे दे. इसलिए हालात यहां तक पहुंचे हैं.
अब आने वाले दिनों में हो सकता है कि कुछ किसान नेता इस कमेटी से बात करना पसंद करें और कुछ को ये मंजूर न हो. इसलिए अभी ये निष्कर्ष निकालना कि किसी की हार-जीत हुई है, सरकार के पाले से गेंद कोर्ट में चली गई है और वहां समाधान निकलेगा जल्दीबाजी होगी.
अभी की बात इतनी है कि एक पहेली बनी हुई है जिसे सरकार समझ नहीं पा रही है. क्योंकि सरकार को लग रहा है कि हमें इनकी कोई बात नहीं माननी हैं और किसान नेता, खासकर पंजाब के किसान हठ करके बैठे हैं. तो ऐसे में जब तक किसानों का भरोसा नहीं जीतते, कोई रास्ता निकलता हुआ नहीं दिखता है.
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