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वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी
सीनियर एडिटर: संतोष कुमार
टूलकिट विवाद (Toolkit Controversy) की जानकारी तो आपको है ही. आइए सरकार की उस टूलकिट को समझते हैं जिसके तहत वो जनरल मीडिया, डिजिटल मीडिया और बड़ी टेक कंपनियां जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चलाती हैं, उनसे टकराव बढ़ा रही है. ऐसी संस्थाओं से आखिर सरकार टकराव क्यों बढ़ा रही है जिनकी बदौलत खुद इन लोगों ने पब्लिक कंवर्सेशन पर बड़ी जमींदारी और रियल एस्टेट को खड़ा किया है.
ये सरकार ट्विटर (Twitter) के जरिए ही चलती है, इसी प्लेटफॉर्म से सारा कम्युनिकेशन है. ऐसे में इतनी तकरार की वजह क्या है? ऐसा क्या हो गया कि टूलकिट मामले में संबित पात्रा के ट्वीट को प्लेटफॉर्म ने मैनिपुलेटेड मीडिया बताया, इसके बाद दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ट्विटर के ऑफिस पहुंच गई. इस पूरे मामले में सरकार दिखाना क्या चाहती है? इसे समझते हैं.
स्पेशल सेल का काम बड़ी टेक कंपनियों से जुड़े मसले की जांच का नहीं है. यहां दिल्ली पुलिस का तर्क है कि कांग्रेस की तरफ से शिकायत आने के बाद जांच के लिए टीम गई थी.
अब ट्विटर के कुछ नियम-कायदे हैं, जिस हिसाब से वो कभी सरकार की बातें मानता है कभी नहीं. किसान आंदोलन के वक्त का उदाहरण देखिए, जब सरकार ने ट्विटर से 1100 अकाउंट बंद करने के लिए कहा था. उस वक्त ट्विटर ने पहले कुछ अकाउंट को बंद किया था बाद में बहाल कर दिया था. पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, नेताओं के अकाउंट ट्विटर ने बंद नहीं किए थे, कुछ इंडिविजुअल अकाउंट जरूर बंद किए गए थे. ट्विटर का कहना है कि जब सरकार कानूनी तरीके से प्लेटफॉर्म के पास आएंगे तो बात सुनी जाएगी.
इसकी एक मूल वजह ये है कि सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा वर्चस्व सत्ताधारी पार्टी बीजेपी का था. लेकिन किसान आंदोलन और कोरोना संकट के बीच दूसरी आवाजें, आलोचकों की, विपक्ष की और असहमत नागरिकों की आईं. ऐसे में सत्ताधारी पार्टी को लगता है कि नैरेटिव पर कंट्रोल करने में वो थोड़े कमजोर साबित हो रहे हैं. जिस प्लेटफॉर्म पर इनका वर्चस्व हुआ करता था अब ऐसे प्लेटफॉर्म पर ये जमकर ट्रोल भी हो जाते हैं और कई बार तो प्रचारात्मक ट्वीट डिलीट करना पड़ जाता है. इस बात से परेशान सरकार लगातार ये कह रही है कि वो रेगुलेशन लाना चाहती है. पिछले दिनों डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया के कंटेंट पर रेगुलेशन के लिए नया कानून लाया गया, जिसे लागू करने को लेकर सरकार जल्दबाजी में है.
एक खास बात समझिए, देश में सबसे ज्यादा प्रसार यूट्यूब का है. इसके बाद फेसबुक और WhatsApp का नंबर है. WhatsApp वैसे तो पर्सन-टू-पर्सन कम्युनिकेशन टूल के लिए इस्तेमाल किया जाता है लेकिन इस प्लेटफॉर्म पर भी सत्ताधारी पार्टी जिस तरह का विमर्श चाहती है वो ज्यादा है.
सरकार, दूसरी तरफ के आवाजों को 'नफरती' बताकर या दूसरे तरीकों से बैन करने को कहती है लेकिन अपने पक्ष वालों की तरफ की ऐसी ही आवाजों पर उसका ऐसा रुख नहीं होता. ऐसे में इस तरह के सिलेक्टिव कानून को मानने से ट्विटर थोड़ा प्रतिरोध कर रहा है. ट्विटर पर ये प्रतिरोध थोड़ा ज्यादा है, फेसबुक और WhatsApp इसपर नरम हैं.
अब एक मजेदार बात जानिए, ट्विटर चीफ जैक डोर्सी ने भारत की तीन NGOs को 110 करोड़ का चंदा दिया था, इनमें से एक NGO 'सेवा इंटरनेशनल' RSS से प्रेरित है. इस NGO को 25 लाख डॉलर का चंदा दिया गया है. जाहिर है कि कोरोना संकट के समय जैक जो मदद भारत के लिए कर सकते थे उन्होंने किया और ये सब उन्होंने खुद ट्वीट करके बताया.
अब आप सोचिए कि पब्लिक नैरेटिव को कंट्रोल करने की जो सत्ता की बेताबी है, इसी वजह से पुलिस का इस्तेमाल किया गया. तर्क ये था कि कांग्रेस की शिकायत पर पुलिस भेजी गई लेकिन ध्यान देने की बात ये है कि अगर बड़ी टेक कंपनियों से कोई जानकारी चाहिए तो म्यूचुअल लीगल असिस्टेंट ट्रीटी (MLAT) सरकार ने पहले ही साइन किया हुआ है. इसके तहत चाहे पुलिस हो या चाहे आईटी मिनिस्ट्री हो उसे विदेश मंत्रालय के पास जाना होता है, कुछ प्रक्रियाओं का पालन करना होता है. अमेरिका की सरकार से कहना होता है कि इस कंपनी से हमें जानकारी लेनी है फिर कंपनी संज्ञान लेती है और वो जानकारी देती है.
सरकार की कोशिश ये रहती है कि उसे जो चीजें पसंद नहीं है, उसे कभी ऑफिशियल या अनऑफिशियल तरीके से हटवा दिया जाए. पिछले दिनों एक और खबर फेसबुक के हवाले से आई थी कि पिछले साल कंपनी को भारत सरकार से 40 हजार रिक्वेस्ट पोस्ट को हटवाने के मिले, जिनपर कंपनी ने अपने हिसाब से फैसला लिया.
पहले इन कंपनियों ने बड़े ही स्वच्छंद तरीके से अपना दायरा बढ़ाया. अब दबाव आ रहा है तो फ्री स्पीच पर जो इनकी कमिटमेंट है उसपर बढ़ा खतरा है. खतरा ये है कि इंटरनेट जिसे ग्लोबल लेवल पर देखा जाता है वो वर्ल्ड गार्डन ना बन जाए. चीन ने अपना इंटरनेट बना लिया है. भारत बड़ा देश है, कभी ये कह सकता है कि हम अपने नियम लगाते हैं अगर ट्विटर को जाना है तो चला जाए.
आखिर में ये बात भी समझने है कि पिछले दिनों कोरोना संकट के बीच में जिस तरह का फेक न्यूज फैला है- चाहे वो गोमूत्र की बात हो या कोरोनिल की बात हो या चमत्कारी इलाजों की बात हो, ऐसी चीजों को रोकने के लिए इन कंपनियों को और सक्रिय होना चाहिए था. इस बीच सरकार इन प्लेटफॉर्म को कहती आई कि कोरोना मौतों पर जो अंडर रिपोर्टिंग हो रही है, वो बैन करिए क्योंकि वो दुष्प्रचार है. अब सच्चाई उलट है, हम सब देख रहे हैं कि घरों, गांवों, कस्बों से मौत के अंडर रिपोर्टिंग की खबरें आ रही हैं. टकराव का ये एक और मुद्दा था. यहां पर ट्विटर जैसी कंपनियां और ज्यादा मदद कर सकती थीं. लोग ऑक्सीजन, बेड, अस्पताल को लेकर ट्वीट कर रहे थे लेकिन सरकार इससे जानकारी हासिल करने की बजाय इसे रोकने की कोशिश में थी.
सरकार की चिंता बस एक ही बात की है कि किसान आंदोलन से लेकर कोरोना संकट तक नियंत्रण छूटता दिख रहा है, अब इसे रोकने के लिए जो भी करना पड़े, वो कर रहे हैं.
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