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चुनाव के ठीक पहले सवर्ण जाति के लोगों को सरकारी नौकरी में आरक्षण देने का कदम, बड़ा कदम कहा जाएगा. कुछ लोग कहेंगे कि ये चुनाव के पहले पॉलिटिकल मास्टरस्ट्रोक है, कुछ लोग कहेंगे कि ये बताता है कि दरअसल बीजेपी में कितनी घबराहट और बदहवासी है.
दोनों बातों में सच्चाई हो सकती है, लेकिन संयोगवश एक सबूत सामने है. गांव और गरीब में बीजेपी के प्रति बेगानापन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, गुजरात चुनावों के बाद सामने आ गया है.
मतलब ये है कि जिन गरीबों को आप लुभाना चाहते हैं , वो आपसे अभी भी बेगाने बने हुए हैं. शायद ये एक वजह हो सकती है कि अगर गरीब, वंचित, दलित, आदिवासी, बैकवर्ड तबके आपकी तरफ पूरी तरह से मुखातिब नहीं हो रहे हैं और ऐसे में सवर्ण का जो आपका मूल जनाधार है, वो नाराज हो रहा है, तो उसको हम पकड़ने की कोशिश क्यों न करें.
एक और कमेंट आ सकता है, जो आ रहा है कि टाइमिंग से पता चलता है कि ये चुनावी हथकंडा है. मुझे इसमें दिक्कत नहीं है, क्योंकि चुनाव जो लोग लड़ते हैं, जो पार्टियां लड़ती हैं, जितना उनका काम है, जो भी पॉसिबल टूल उनके हाथ में हो, औजार उनके हाथ में हो, सभी पार्टियां उसका इस्तेमाल करती हैं.
मूल दिक्कत ये है कि चुनाव के ठीक पहले उठाए गए इस कदम से दलित, आदिवासी और अति पिछड़ी जातियां अब बीजेपी से और छिटक सकती हैं. फिर आपको लगेगा कि अगड़ी जातियां आपकी तरफ आ जाएंगी, लेकिन क्या उतना वोट आपको जिताने के लिए काफी है?
एक राय और भी है कि शायद ये इलेक्टोरेल लेवल पर न्यूट्रल यानी न नफा, न नुकसान का सौदा हो जाए. क्योंकि, ये संविधान संशोधन बिल संसद में आएगा, उसे पास होना है. इसके लिए सत्र बढ़ाना पड़ेगा या खास सत्र बुलाना होगा. राज्यसभा की हामी उसमें लगेगी, जहां एनडीए का बहुमत नहीं है. ऐसे में शायद ये बिल चुनाव से पहले पास ही न हो तब बीजेपी कहेगी कि देखिए
'हमने तो कोशिश की, हमारा तो इरादा है'
'अब आप हमें और जोर से जिताइए, तब राज्यसभा में भी हमारा बहुमत होगा, तब हम और संविधान संशोधन करेंगे'
ऐसे में मूल बात चुनाव के हिसाब-किताब और जोड़तोड़ की नहीं है, बात ये है कि आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की गई है, क्योंकि भारत बेहद विषम और गैर-बराबरी वाला समाज है. जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई, उस वक्त जो ताकतवर तबके थे, उन्होंने कहा कि ये समाज को जातिवादी बनाने का तरीका है, वगैरह-वगैरह. तब उस आग को शांत करने के लिए 1990 में वीपी सिंह, 1991 में पीवी नरसिंह राव दोनों एग्जीक्यूटिव ऑर्डर लेकर आए कि हम सवर्ण जातियों के गरीबों को आरक्षण देंगे. क्योंकि ये एग्जीक्यूटिव ऑर्डर था, संविधान के खिलाफ था.
सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने बड़ा मशहूर फैसला है-इंदिरा साहनी केस. उसमें ये कहा गया
था कि ये क्राइटेरिया लागू नहीं हो सकता है. अब शायद ये सरकार इस बात की होशियारी बरत रही है कि ये संविधान संशोधन लाएगी. ताकि जब उसके बाद कानून बन गया तो सुप्रीम कोर्ट इसका सिर्फ रिव्यू कर सकता है, पूरी तरह से नकार नहीं सकता. सुप्रीम कोर्ट के उसी फैसले में एक और बड़ी बात कही गई थी.
'किसी नागरिक के पिछड़े होने की पहचान सिर्फ आर्थिक स्थिति पर नहीं हो सकती'
'नए क्राइटेरिया पर किसी भी विवाद पर विचार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट कर सकता है'
ऐसे में अगर ये कठिन कानून सरकार लेकर आती भी है, तो भी संभव है कि सुप्रीम कोर्ट में आगे जाकर चुनौती मिल जाए. कुछ और फैसला आ जाए. अभी 2019 चुनाव को जीतने के लिए क्या-क्या तौर तरीके अपनाए जा सकते हैं, ऐसा कदम उनमें से ही एक है. कोई भी रूलिंग पार्टी खासकर NDA की ये सरकार जब कोई बात बहुत जोर से बोलती है, तो मान लीजिए कि डर उतना ही बड़ा है.
अब कहा जाएगा कि गरीबी का इसमें खास मापदंड जोड़ा गया है
इन बातों की बहुत अहमियत नहीं है. दरअसल, हिंदुस्तान के ग्रामीण इलाकों के तीन चौथाई आबादी 5000 रुपये से कम में गुजारा करती है. उसकी मेजॉरिटी इन गरीबों, दलितों, वंचितो, आदिवासियों, और अति पिछड़ी जातियों वाली आबादी है. जब तक आप उनका एजुकेशनल और सोशल अपलिफ्टमेंट नहीं करते और इकनॉमिक क्राइटेरिया अगड़ी जातियों की दबंगई को बनाने के लिए लाते हैं तब तक सामाजिक बराबरी की लड़ाई सिर्फ एक ढकोसला है.
भारत में गैर-बराबरी की लड़ाई अभी Work in Progress थी. पूरी नहीं हुई थी. सोशल और एजुकेशनल क्राइटेरिया पर जॉब देने की बात थी. इकनॉमिक क्राइटेरिया पर जॉब देने की बात नहीं थी. उसको जो लाया गया है. ये गैर-बराबरी को बढ़ाने वाला, गैर-बराबरी को बनाए रखने वाला मिजाज इसके पीछे दिखाई पड़ता है.
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