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वीडियो एडिटर: विशाल कुमार
नेहरू सरदार पटेल को अपने मंत्रिमंडल में नहीं लेना चाहते थे, ये सच है या झूठ?
जवाब है- झूठ
और ये चिट्ठी इसका सबसे बड़ा सबूत है. ये चिट्ठी नेहरू ने सरदार पटेल को 1 अगस्त 1947 को लिखी थी.
और सबूत चाहिए तो 3 अगस्त, 1947 को सरदार पटेल की जवाबी चिट्ठी पढ़िए. शुरुआती शुक्रिया-अभिवादन के बाद पटेल लिखते हैं - हमारे बीच जुड़ाव, प्यार है, इसलिए औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं है.
कुछ ऐसे थे नेहरू और पटेल के रिश्ते. दोनों में गहरा लगाव था, दोनों एक दूसरे की इज्जत करते थे. कोई दुश्मनी नहीं थी.
पटेल आगे लिखते हैं- पूरा जीवन मैं आपकी सेवा करने के लिए तत्पर हूं. मेरी निष्ठा और श्रद्धा को लेकर आपकी कभी शिकायत नहीं होगी क्योंकि देश में आपसे ज्यादा किसी ने त्याग नहीं किया है.
और आखिर में पटेल लिखते हैं - हमारी जोड़ी टूट नहीं सकती और यही हमारी ताकत है. यही नेहरू-पटेल के संबंधों का मूल है. दोनों साथी कांग्रेसी थे, साथ में उन्होंने दशकों तक आजादी की लड़ाई लड़ी थी.
पटेल की चिट्ठी के बारह दिन बाद 15 अगस्त को नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने और उनके भाई-सखा सरदार पटेल भारत के डिप्टी पीएम और गृह मंत्री बने.
हालिया विवाद विदेश मंत्री एस जयशंकर के बयान से खड़ा हुआ. उन्होंने कहा - एक किताब से पता चला कि नेहरू 1947 में पटेल को अपने कैबिनेट में नहीं लेना चाहते थे, और शुरुआती लिस्ट से उनका नाम हटा दिया था
जयशंकर दरअसल वीपी मेनन पर लिखी एक किताब के बारे में बात कर रहे थे, जो ब्रिटिश राज में भारत के आखिरी वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन के सलाहकार थे. किताब को मेनन की पड़पोती नारायणी बसु ने लिखा है.
ये कहानी दरअसल नेहरू के ‘टुकड़े-टुकडे़ करो गैंग’ को बहुत पसंद आती है क्योंकि इसमें नेहरू एक सत्ता लोलूप किरदार की तरह दिखते हैं. क्योंकि इस कहानी से साबित होता है कि नेहरू आजाद भारत में अपने प्रतिद्वंदी पटेल को किनारे कर देना चाहते थे और खुद पूरी सत्ता हथियाना चाहते थे. ऐसा करके ये गैंग नेहरू की छवि और नुकसान पहुंचाना चाहते हैं.
लेकिन नेहरू-पटेल के बीच दुश्मनी की ये ताजा कहानी एकदम शर्मनाक है, और इसका पर्दाफाश करना आसान है
पहला- वीपी मेनन किताब की लेखिका नारायणी बसु अपनी जानकारी का हवाला लेखक हैरी हॉडसन को मेनन के दिए एक इंटरव्यू को देती हैं, लेकिन हॉडसन खुद मानते हैं कि वीपी मेनन ने ये नहीं बताया था कि नेहरू की कैबिनेट लिस्ट में पटेल का नाम न होने की बात उन्हें कैसे पता लगी थी. उन्होंने किसी दस्तावेज, किसी सूत्र का नाम नहीं लिया क्यों?
बसु ये भी लिखती हैं कि मार्च 1970 में हॉडसन ने खुद माउन्टबेटन से इस बारे में पूछा था और माउन्टबेटन ने कहा था- "इस कहानी से मुझे कुछ धुंधला सा याद आता है, मुझे ऐसा लगता है कि ये ऐसा मामला था कि मैंने इसका जिक्र शायद चाय के समय नेहरू से किया था और ये भी कहा था कि इसे कहीं रिकॉर्ड न किया जाए "
ये महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि, बासु ही अपनी किताब में लिखती हैं कि माउन्टबेटन ‘अपनी जिंदगी की हर मीटिंग और बातचीत के अच्छे-खासे डोजियर' रखते थे लेकिन ऐसी बातचीत का कोई रिकॉर्ड नहीं जिसमें पटेल के नेहरू कैबिनेट में न होने जैसी जरूरी बात का जिक्र हो. यकीन करना मुश्किल है.
तो क्या एक केन्द्रीय मंत्री 'धुंधली याद' या 'अफवाहों' के आधार पर भारत के पहले प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा पर सवाल उठा सकता है? क्या ये ठीक है, तर्कसंगत और स्वीकार्य है?
वो भी तब, जब 'धुंधली याद' और 'अफवाहों' के खिलाफ नेहरू के पटेल को लिखे असली खत मौजूद हैं. जिनमें नेहरू, पटेल से भारत की पहली कैबिनेट में शामिल होने को कहते हैं और पटेल को कैबिनेट का सबसे मजबूत स्तंभ भी बताते हैं.
रिकॉर्ड में है कि पटेल खत लिख कर कैबिनेट में शामिल होने की पुष्टि करते हैं और नेहरू के साथ अपने रिश्तों पर भी रोशनी डालते हैं. इसके अलावा और भी खत हैं
जैसे कि 30 जुलाई 1947 का नेहरू का पटेल को खत, जिसमें वो कैबिनेट गठन पर चर्चा करते हैं नेहरू, पटेल को बताते हैं कि आंबेडकर कैबिनेट में शामिल होने के लिए मान गए हैं और पटेल को श्यामा प्रसाद मुखर्जी से कैबिनेट में आने की बात करने की याद दिलाते हैं. साफ है कि पटेल भारत की पहली कैबिनेट के गठन के केंद्र में थे.
इसके अलावा 19 जुलाई और 4 अगस्त 1947 के भी खत हैं. दोनों में नेहरू, माउन्टबेटन को कैबिनेट सदस्यों का नाम बताते हैं और दोनों खतों में सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर है और यहां हम अटकलें और अफवाहों पर विश्वास कर रहे हैं और दो राष्ट्रीय हस्तियों को डेली सोप ओपरा के किरदारों में बदलता देख रहे हैं.
क्या नेहरू और पटेल में मतभेद थे? जरूर थे, और उनके बारे में दस्तावेज भी मौजूद हैं
सिविल सर्विसेज कैसी हो, कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र जाना चाहिए या नहीं, राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति होने चाहिए या नहीं, इन तमाम मुद्दों पर दोनों में मतभेद थे. लेकिन ये मतभेद दोनों को साथ में काम करने से रोकते नहीं थे.
1950 में पटेल ने जब आखिरी सांस ली, तब तक दोनों एक टीम की तरह साथ काम करते रहे. आखिर तक दोनों एक दूसरे का सम्मान करते रहे.
ये जो इंडिया है ना -ये नेहरू और पटेल दोनों की कद्र करता है. राष्ट्र दोनों का सदा कृतज्ञ रहेगा, ऐसे में जरूरी है कि दोनों जिस सम्मान के हकदार हैं, वो उन्हें मिलता रहे.
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