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वीडियो एडिटर: पूर्णेंदु प्रीतम
न्यूटन फिल्म देखी है आपने? फिल्म में आप जिन गांववालों को, जिन आदिवासियों को देखते हैं, वो छत्तीसगढ़ के कोंगरा गांव के हैं. फिल्म में तो आपने रील वोटिंग का हाल देख लिया होगा, अब रियल वोटिंग के वक्त कोंगरा गांव में क्या कुछ बदल गया है? क्या कोंगरा गांव के लोगों की जिंदगी में इस फिल्म का कुछ असर हुआ है? क्या बुनियादी सुविधाएं गांव को मयस्सर हो सकीं? इन सवालों का जवाब जानने के लिए क्विंट पहुंचा है छत्तीसगढ़ के कोंगरा गांव.
दरअसल, फिल्म में बताया गया है कि कैसे चुनाव के वक्त, दूर-दराज के इलाकों में, नक्सल प्रभावित इलाकों में धड़ल्ले से लोकतंत्र का मजाक उड़ता है.
कोंगरा गांव की आबादी 1396 है, कभी ये नक्सलियों का गढ़ हुआ करता था. फिल्म बनने के बाद लोगों को ऐसा लगा कि बहुत कुछ बदल जाएगा. कम से कम बुनियादी सुविधाएं तो मयस्सर होंगी. लेकिन हालत ये है कि पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधा भी गांववालों को नहीं मिल सकी है. गांव में 8 हैंडपंप हैं, लेकिन उसमें 6 हैंडपंप में फ्लोराइड का पानी आता है.
गांववालों का कहना है कि पीने के पानी के लिए 2 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है, वहां भी गंदा पानी मिलता है. इसी पानी का इस्तेमाल पीने और खाना बनाने में किया जाता है.
न्यूटन फिल्म में खासतौर से नक्सल प्रभावित गांवों में वोटिंग और उससे जुड़ी मुश्किलों को दिखाया गया था. ऐसा माना जा रहा था कि फिल्म के बाद इन गांवों में वोटिंग के लिए जागरूकता आएगी. अब छत्तीसगढ़ में चुनाव है और इस फिल्म में काम करने वाले स्थानीय एक्टर ऐसा मानते हैं कि आदिवासियों की जिंदगी में कुछ भी नहीं बदला है.
ऐसे में न्यूटन फिल्म का एक डायलॉग याद आता है.
काश हमारे पॉलिटीशियन भी ये समझ पाएं.
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