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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन/अभिषेक शर्मा
सीनियर एडिटर: संतोष कुमार
NHRC के आंकड़ों के मुताबिक बीते 20 सालों में भारत में 1888 लोगों की पुलिस हिरासत के दौरान मौत हुई है, जबकि आज तक सिर्फ 26 आरोपी पुलिसवालों को ही सजा हो पाई है. सुप्रीम कोर्ट और NHRC भी ये मानते हैं कि पुलिस हिरासत में हुई मौत के मामलों में पीड़ित परिवार को इंसाफ मिलना काफी मुश्किल होता है. ऐसा क्यों है, उसे समझने के लिए आपको उत्तर प्रदेश के जौनपुर में पुलिस हिरासत में हुई कृष्णा यादव की मौत और उसके बाद इंसाफ पाने की लड़ाई को देखना होगा.
जौनपुर शहर से कुछ दूर बक्शा थाना क्षेत्र में एक छोटा सा गांव पड़ता है, चक मिर्जापुर. यहां रहने वाले 24 साल के नौजवान कृष्णा यादव उर्फ पुजारी की 11 फरवरी, 2021 को पुलिस हिरासत के दौरान मौत हो गई. परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने कृष्णा की बेरहमी से पिटाई की, इतना टॉर्चर किया कि उसकी जान चली गई. पुजारी की मौत का मामला हाईकोर्ट तक जा चुका है, सीबीआई जांच हो रही है, लेकिन पहले पुलिस और फिर सीबीआई की जांच प्रक्रिया पर कोर्ट ने जो टिप्पणियां कीं, वो ये बताने के लिए काफी हैं कि हिरासत में मौत के मामलों में पीड़ित परिवार को इंसाफ मिलने की उम्मीद न के बराबर क्यों होती है.
कृष्णा के भाई अजय बताते हैं कि जब उन्होंने पुजारी की डेडबॉ़डी देखी तो सिर से लेकर पांव तक चोट के निशान थे, रीढ़ की हड्डी से खून निकल रहा था और हथेलियां सूजी हुई थीं. लेकिन पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में इन चीजों को छिपा लिया गया और मौत की वजह SHOCK & SYNCOPE बताई गई. पुलिस दबाव बना रही थी कि लाश को किसी तरह जला दिया जाए और एफआईआर न रजिस्टर हो, लेकिन काफी विरोध प्रदर्शन करने के बाद पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया. उधर दूसरी तरफ तत्कालीन एसपी राज करन नय्यर ने बयान दिया कि पेट दर्द की शिकायत के बाद लॉकअप में बंद कृष्णा को अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां उसकी मौत हो गई. कृष्णा की मौत के बाद पुलिस ने अपनी जनरल डायरी में लिखा कि 11 फरवरी को कृष्णा की बाईक का एक्सीडेंट हुआ था जिसके बाद कुछ लोगों ने उसकी पिटाई की जिसमें उसे चोटे आई थीं.
मृतक के बड़े भाई के मुताबिक उन्हें डीएम और एसपी से भी किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली. एफआईआर लिखवाने से लेकर पीड़ित परिजनों को मिल रही धमकियों की शिकायत और इस मामले की उच्च स्तरीय जांच कराने की मांग के लिए भी पीड़ित परिवार को मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री और पिछड़ा वर्ग आयोग से लेकर मानवाधिकार आयोग तक को अनगिनत चिट्ठियां लिखनी पड़ीं. दावा है कि न सिर्फ पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को मैनेज किया गया, बल्कि मैजिस्ट्रियल जांच में भी NHRC के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए आरोपियों को क्लीन चिट दे दी गई. थक-हार कर पीड़ित परिवार हाईकोर्ट पहुंचा. कोर्ट ने पुलिस जांच को सिरे से खारिज कर दिया, साथ ही मैजिस्ट्रियल जांच पर भी गंभीर सवाल उठाए. हाईकोर्ट ने कहा कि पुलिस की पूरी कोशिश आरोपियों को किसी भी तरह क्लीन चिट देने की थी. पुलिस से न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती.
हाईकोर्ट ने 6 सितंबर, 2021 को एसपी को तलब किया. एसपी ने आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए कोर्ट से 48 घंटे का समय मांगा, गैर जमानती वारंट जारी किया गया लेकिन फिर भी आरोपी पुलिसवालों की गिरफ्तारी नहीं हुई. आखिरकार कोर्ट ने 8 सितंबर को सीबीआई जांच का आदेश दे दिया. हालांकि सीबीआई जांच शुरू होने बाद भी कोई ठोस कार्रवाई न होते देख कोर्ट ने असंतोष जाहिर किया और सीबीआई को कड़ी फटकार लगाते हुए उनकी जांच प्रक्रिया को आई वॉश करार दिया. हाईकोर्ट में कृष्णा यादव का केस लड़ रहे वकील गजेंद्र सिंह यादव ने कहा, "सीबीआई जांच के आदेश के बाद भी 29 नवंबर, 2021 तक हाईकोर्ट ने पाया कि इस मामले में न तो कोई गिरफ्तारी हुई है और न ही जांच सही दिशा में जाती हुई दिख रही है."
एसओजी इंचार्ज और बक्शा थानाध्यक्ष समेत 10 पुलिसवालों पर हत्या का मुकदमा दर्ज हुए 11 महीने हो चुके हैं. राज्य सरकार का कहना है कि आरोपी पुलिसवाले फरार हैं, जबकि स्थानीय सूत्रों का दावा है कि सीबीआई जांच शुरू होने से पहले तक सभी आरोपी पुलिसवाले जौनपुर में ही मौजूद थे. अब सवाल ये है कि जब सीबीआई जैसी जांच एजेंसी भी आरोपियों को फरार होने का मौका देगी तो आम आदमी निष्पक्ष जांच की उम्मीद किससे करेगा? हालांकि, 8 दिसंबर को सीबीआई ने हाईकोर्ट को बताया है कि 4 आरोपियों की गिरफ्तारी हुई है, इनमें से 3 आरोपी पुलिसवालों ने खुद सरेंडर किया है.
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