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‘क्रांति के प्रतीक दलित शब्द से सवर्ण समाज में फैल गया है डर’

जाने-माने दलित विचारक चंद्रभान प्रसाद की क्विंट हिंदी से खास बातचीत

शौभिक पालित
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SC/ST एक्ट में संशोधन को लेकर दलितों और सवर्णों का अपना-अपना विरोध प्रदर्शन जारी है 
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SC/ST एक्ट में संशोधन को लेकर दलितों और सवर्णों का अपना-अपना विरोध प्रदर्शन जारी है 
(फोटो: altered by Quint Hindi)

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बॉम्बे हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले का हवाला देते हुए सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया संस्थानों को 'दलित' शब्द का इस्तेमाल न करने की एडवाइजरी जारी की है.

हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का ये फैसला केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाज को लेकर था, जिसमें कोर्ट का निर्देश था कि सारे सरकारी दस्तावेजों में 'दलित' और 'आदिवासी' शब्द के बदले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति शब्दों का इस्तेमाल किया जाए, क्योंकि संविधान में ये शब्द कहीं नहीं आए हैं. लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय इसे मीडिया पर भी थोपने की कोशिश कर रही है.

क्विंट हिंदी से हुई खास बातचीत में जाने-माने दलित विचारक चंद्रभान प्रसाद ने बड़ी बेबाकी से इस मुद्दे पर अपनी राय रखी.

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'दलित' की बजाय 'शेड्यूल्ड कास्ट' से कोई फर्क पड़ेगा?

चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, “दलित शब्द 'दलित प्राइड' से जुड़ा हुआ है और दलित को इस शब्द से ताकत मिलती है. इसको दलितों ने खुद स्वीकारा है. शेड्यूल्ड कास्ट एक टर्म है जिसको ब्रिटिश सरकार ने 1935 में दिया था. शेड्यूल्ड कास्ट एक कास्ट नहीं है, ये एक शेड्यूल है जिसमें सभी 'Untouchable' कास्ट जोड़ दिए गए. अगर इससे दलितों को तकलीफ नहीं है तो सरकार और कोर्ट को क्यों है? कहीं न कहीं सवर्ण समाज को 'दलित' शब्द पच नहीं पाया. इस तरह कोर्ट और सरकार के सहारे ये चाहते हैं कि जो हथियार इनकी अमानवीय सत्ता को चैलेंज कर रहा है, उस हथियार को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया जाए.”

चंद्रभान प्रसाद के मुताबिक ‘दलित’ शब्द दलित क्रांति का प्रतीक है. इसीलिए सवर्ण समाज में इस शब्द से घबराहट है. जिस तरह से ब्लैक पैंथर आंदोलन अमेरिका में 1960 में हुआ, ब्लैक पैंथर नाम से ही बहुत सारे  नस्लवादी लोग डर जाते थे. वैसे ही ‘दलित पैंथर’ नाम से अत्याचार करने वाले कांप जाते थे. अब ‘दलित पैंथर’ शब्द नहीं रहा, लेकिन ‘दलित’ शब्द और भी ताकतवर होता गया.

‘दलित’ शब्द को लोकप्रियता कैसे हासिल हुई

चंद्रभान प्रसाद बताते हैं कि 1972 में जब महाराष्ट्र में 'दलित पैंथर्स' लॉन्च हुआ तो कुछ समय बाद वो बिखर गया, लेकिन उसके बाद महाराष्ट्र में दलित साहित्य का उदय हुआ, जो दलितों के लिए नया साहित्य था. वो उनके विरोध को आवाज देने वाला साहित्य था. उसकी गूंज उत्तर भारत में भी सुनाई दी. हिंदी, पंजाबी, हरियाणवी, बांग्ला, तेलुगु, गुजराती, तमिल जैसी भाषाओं में दलित साहित्य का उदय हुआ. उसके बाद दलित राजनीति का उदय हुआ. फिर दलित समाज ने देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में इस शब्द को अपनी पहचान और अस्मिता का शब्द मान लिया.

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दलित अत्याचार के बढ़ते मामले आखिर किस ओर इशारा कर रहे हैं?

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