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पिछले कुछ साल से नौकरी, बेरोजगारी और युवाओं के आंदोलन जैसे शब्द लगातार सुनाई दे रहे हैं. कहा जा रहा है कि नई नौकरियां पैदा नहीं होने के कारण बेरोजगारी चरम पर है इसलिए युवा आंदोलन पर आंदोलन कर रहे हैं. हमारी सरकार के पास भी बेरोजगारी के सवालों का ठीक-ठाक जवाब नहीं है, ऐसा इसलिए क्योंकि नौकरी के आंकड़े पता करने का कोई सटीक सिस्टम ही नहीं बन सका है.
ऐसे में बीच-बीच में कोई आंकड़ा आ जाता है और हेडलाइन तो बन ही जाती है. एक और हेडलाइन मार्केट में आई है, 'सरकार के लिए खुशखबरी, 15 महीने में मिली 73.50 लाख लोगों को नौकरी', इस टाइप की.
ये तो सिर्फ एक उदाहरण है, सोशल मीडिया पर भी इस नए आंकड़े को लेकर बवाल मचा है, इन साढे 73 लाख नौकरियों के दावे के पीछे है EPFO यानी Employees' Provident Fund OrganisatioN का नया आंकड़ा.
अब ये आंकड़े नई नौकरी के या जॉब ग्रोथ की सही तस्वीर क्यों नहीं दिखाते, जरा ये समझते हैं. पहले तो ये समझ लेना चाहिए कि EPFO में दर्ज नए खाते फॉर्मल सेक्टर के इंडिकेटर तो हैं ही. फॉर्मल सेक्टर में नौकरी करने वाले वो लोग होते हैं जिसके पास ईपीएफ अकाउंट है, जो सरकारी नौकरी में है या सरकारी कंपनियों में काम करता है, जिसने पेंशन स्कीम खरीदी है या जिसका टीडीएस कटता है. लेकिन इन सभी के डेटा बेस के आधार पर जॉब डेटा तैयार नहीं किया जा सकता.
एक और दिक्कत है कि EPFO में दर्ज होने के लिए किसी संस्थान के पास कम से कम 20 कर्मचारी होने चाहिए. मान लीजिए आपकी कंपनी है, उसमें 19 लोग काम कर रहे हैं, एक और कर्मचारी आता है और ये संख्या 20 हो जाती है. अब आपकी कंपनी EPFO में दर्ज हो जाएगी. और वहां रजिस्टर हुए कुल लोगों की संख्या में सीधे 20 का इजाफा होगा, लेकिन असल में वो 19 लोग तो नौकरी कर ही रहे थे. नई नौकरी तो सिर्फ एक को मिली है. इसलिए इन आंकड़ों को सीधे-सीधे मान लेना और ताल ठोककर उस आधार पर बहस करना ठीक नहीं होगा.
दूसरी बात, प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना के तहत कंपनियों को PF के लिए योगदान दिया गया. ऐसे में बताया जाता है कि कंपनियों ने योगदान पाने के लिए पहले से काम कर रहे कर्मचारियों का नाम EPFO की फाइल में चढ़ा दिया. अब कौन पता लगाएगा कि ये नई नौकरियां थी या पुरानी नौकरी को ही नई फाइल में अपडेट कर दिया गया.
देखिए...चुनाव सामने है, वो चुनाव जो किसी पार्टी का चुनाव नहीं है, देश के 5 साल के भविष्य का चुनाव है, ऐसे में आपको और हमें आंकड़ों, दावों, वादों से ज्यादा उसके पीछे की बाजीगरी को समझना चाहिए. तभी तो हम कह सकेंगे कि ये पब्लिक है सब जानती है.
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