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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन
पूर्व आईएएस और लेखक एनके सिंह ने “Portraits of Power: Half a Century of Being at Ringside” नाम से एक किताब लिखी है. इस किताब के जरिए उन्होंने देश की इकनॉमी के भविष्य की बातें करने वाली इकनॉमिक हिस्ट्री लिखी है. किताब से जुड़े दिलचस्प किस्सों, देश की इकनॉमी से जुड़े मुद्दे और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मोदी तक के दौर के बारे में क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया से उन्होंने खास बातचीत की.
महामारी के बाद देश के सामने क्या-क्या चुनौतियां हैं?
पिछले 50 सालों में 2-3 ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें जितना प्रभाव डालना चाहिए था वो नहीं डाला गया. अगर स्वास्थ्य की बात की जाए तो देश में स्वास्थ्य को लेकर सिर्फ 1% का खर्च है. जिसमें 0.7% राज्य का और 0.3% केंद्र का है. अन्य विकासशील देशों की तुलना में ये देखें तो काफी कम है. शिक्षा के भी वही हालात हैं. शिक्षक नहीं होते हैं. इसके अलावा सतत विकास की भी जरूरत है.
केंद्र और राज्यों के बीच में संबंध में भी विश्वास की कमी आ गई है?
विश्वास की कमी को कई रूप में देखा जा सकता है. जिस तरह से महामारी के वक्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों का योगदान रहा है. पीएम ने शुरुआत में कुछ जरूरी कदम उठाए लेकिन उसके बाद राज्यों का महत्वपूर्ण योगदान था. विश्वास बहाली के लिए ये एक अच्छा कदम है. आगे के लिए संविधान में परिवर्तन चाहिए होगा.
फिस्कल डिसिप्लिन को लेकर एक स्वतंत्र फिस्कल काउंसिल की जरूरत है?
इसपर बहुत विचार हुए हैं. 12वें वित्त आयोग से लेकर लगातार इसको लेकर अनुशंसा हो रही है. फिस्कल इश्यू में डोमेन एक्सपर्टाइज की जरूरत है. इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों का योगदान जरूरत है. केवल केंद्र एक रोडमैप बना ले, ये काफी नहीं होगा, क्योंकि जो पूंजी निवेशक केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को देखता है.
वाजपेयी और मोदी सरकार के पीएमओ की तुलना किस तरह करेंगे?
देश के जितने प्रधानमत्री रहे हैं उनकी चुनौतियां और दृष्टिकोण अलग-अलग रहे हैं. पीवी नरसिम्हा राव के सामने आर्थिक संकट से उभरने की चुनौती थी. इसलिए उस पीएमओ ने मनमोहन सिंह के साथ नजदीकी से काम किया. अटल बिहारी वाजपेयी के पास चुनौतियां कुछ और ही थीं. वो भारत का स्वाभिमान बढ़ाने के लिए सबसे पहले परमाणु परीक्षण करना चाहते थे. उन्होंने ब्यूरोक्रेसी के सलाहों को एक तरफ रखकर ये फैसला लिया. टेलीकॉम कंपनियों को लेकर फैसले और सड़कों को लेकर बहुत काम किया. वाजपेयी और मोदी की चुनौतियों में फर्क है. मोदी ने कठिन कदम उठाए हैं. जीएसटी लागू करने की बात 1991 में हुई थी लेकिन लागू 2017 में हुआ.
ब्यूरोक्रेसी के सामने क्या चुनौतियां हैं और आने वाले समय में क्या किया जाना चाहिए?
ब्यूरोक्रेसी की लागू करने की क्षमता को कैसा बढ़ाया जाए और नेताओं के साथ उनका विश्वास कैसे बढ़ाया जाए ये बड़ी चुनौती है. मोदी जब गुजरात के सीएम थे तब उनका ब्यूरोक्रेसी के साथ अद्भुत समन्वय था. वहीं कई सीएम हैं जो ब्यूरोक्रेसी पर काम न होने देने की बात करते हैं.
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