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वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज
मेरे 'जश्न-ए-भड़काऊ दल' वालों आपका मुंह खट्टा हो जाएगा जब आपको पता चलेगा कि गुलाब जामुन भी जलेबी और समोसे की तरह हिंदी से नहीं हैं. इसलिए जब आप ऊर्दू के विरोध के नाम पर हिंदुस्तान की भाषा, जुबान, लैंग्वेज से चिढ़ेंगे तो हम आपकी हिपोक्रेसी पर पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?
फैबइंडिया (Fabindia) ने 9 अक्टूबर को अपना नया विज्ञापन ट्वीट किया. जिसमें लिखा था, “As we welcome the festival of love and light, Jashn-e-Riwaaz by Fabindia is a collection that beautifully pays homage to Indian culture," हिंदी में इसका मतलब हुआ--- 'जैसा कि हम प्यार और प्रकाश के त्योहार के स्वागत में लगे हैं, फैबइंडिया का जश्न-ए-रिवाज एक ऐसा संग्रह (collection) है जो खूबसूरती से भारतीय संस्कृति को सम्मान देता है..." ट्वीट में एक तस्वीर भी थी जिसमें लाल रंग की ड्रेस में पुरुष और महिलाएं नजर आ रही थीं. लेकिन लफ्ज 'जश्न-ए-रिवाज' सुनकर कुछ लोग भड़क गए. उन्हें लगा कि मानो दिवाली का नाम बदल गया है. कुछ ने तो कहा हिंदू त्योहारों के इस्लामीकरण की कोशिश हो रही है. कुछ को आपत्ति थी कि फैबइंडिया के ऐड में लड़कियों ने बिंदी नहीं लगाई है. मतलब एक तो हिंदी नहीं, ऊपर से बिंदी नहीं.
खैर कमाल है कि जो उर्दू भारत की 22 भाषाओं में से एक है उसके इस्तेमाल से कुछ लोगों को तकलीफ होने लगी. ओह ओह.. 'इस्तेमाल', 'तकलीफ' फिर उर्दू बोल दिया. अब जिन्हें पीड़ा हो रही है उन्हें जनाब गोरख प्रशाद के पुत्र रघुपति सहाय साहब से मिलना चाहिए. जिन्हें लोग फिराक गोरखपुरी के नाम से जानते हैं. अब जनाब और साहब कहने पर भड़क मत जाइएगा.
फिराक गोरखपुरी कहते हैं,
"मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू जबां
जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयां बनता गया."
अब फिराक गोरखपुरी ने कहां सोचा होगा कि उनके देश में हिंदुस्तानी भाषा से ही लोग नफरत करने लगेंगे. कपड़ों से धर्म ढूंढते-ढूंढ़ते भाषा का भी धर्म खोज रहे हैं.
चलिए आपको कुछ शब्द से मिलवाते हैं जो हिंदी के घर में पल तो रहे हैं लेकिन पैदा उर्दू के खानदान यानी अरबी या फारसी में हुए हैं. याद है साल 2019 लोकसभा चुनाव. एक शब्द जो पक्ष से लेकर विपक्षी पार्टियों का फेवरेट था. कितनों ने तो अपने नाम के साथ लगा लिया था. हां, चौकीदार. फारसी से आया है ये शब्द. और भी शब्द हैं.
और क्या सिर्फ इसलिए कानून को नापसंद करेंगे क्योंकि ये अरबी भाषा का शब्द है? नमक के बिना कोई हिंदुस्तानी रसोई नहीं चलनी लेकिन क्या पकाएंगे और क्या खाएंगे जब पता चलेगा कि नमक तो फारसी का शब्द है. हवा को सांस लेना पसंद करेंगे कि नहीं क्योंकि ये शब्द भी फारसी से आया और हिंदुस्तानी जुबां का हिस्सा बन गया. गरीब, अमीर, मालिक, खतरा. क्या-क्या गिनाऊं. कुछ लोग कहेंगे कि ये फारसीद के शब्द हैं, मैं कहूंगा होंगे अब हिंदुस्तानी हैं. शायद जिस चाय-समोसा पार्टी में बैठकर लोगों ने 'जश्न-न-रिवाज़' का विरोध का करने का प्लान बनाया होगा उन्हें उल्टी ही हो जाएगी जब जानेंगे कि इसकी उत्पत्ति फारसी के शब्द संबुश्क से हुई है और ये ईरान की डिश है.
अगर समझ में आया हो तो बता दें कि न उर्दू मुसलमान है, और न हिंदी हिंदू. मुंशी प्रेम चंद, सम्पूर्ण सिंह कालरा यानी गुलजार, पंडित प्रेम बरेलवी, आनंद नारायण मुल्ला, रघुपति सहाय जैसे अनगिनत नाम हैं जो भाषा से दिलों को जोड़ रहे थे. अब नफरत की भाषा बोलने वालों को भारतीय भाषा से दिक्कत होगी तो हम पूछेंगे जरूर जनाब ऐसे कैसे?
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