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फैज के पोते ने कहा ‘हम देखेंगे...’ का विरोध बहुत खतरनाक

फैज के बारे में उनके पोते डॉ. अली मदीह हाशमी से खास बातचीत  

निष्ठा गौतम
वीडियो
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‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, हम देखेंगे’ फैज की इस नज्म पर विवाद गरमाया था
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‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, हम देखेंगे’ फैज की इस नज्म पर विवाद गरमाया था
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: राहुल सांपुई

‘हम देखेंगे’ नज्म लिखने वाले शायर फैज अहमद फैज के बारे में उनके पोते डॉक्टर अली मदीह हाशमी से क्विंट ने खास बातचीत की. इस बातचीत में उन्होंने ‘हम देखेंगे’ नज्म को लेकर हुए विवाद, पाकिस्तान में फैज और उनकी शायरी पर चर्चा की.

डॉक्टर अली मदीह हाशमी पेशे से एक मनोचिकित्सक हैं और शेर-शायरी उनके खून में बसती है. हाशमी 2 किताबें और कई लेख लिख चुके हैं, जिसमें फैज की जीवनी भी शामिल है.

पेश है उस बातचीत के कुछ अंश:

नज्म ‘हम देखेंगे...’ पर विवाद पर आप क्या कहेंगे?

‘हम देखेंगे...’ पर विवाद को लेकर हममें से कई लोग काफी आश्चर्यचकित थे. भारत में भी और पाकिस्तान में भी. हमें ये हास्यास्पद लगा. ये एक बेवकूफी है कि नज्म में से उसके मतलब को छोड़ कर उसके शब्दों को पकड़ना और उसके बाद उसका मुद्दा बनाना. लेकिन मुझे लगता है कि हमें ये ख्याल रखना चाहिए. इसे बस मजाक समझ के छोड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि इसके पीछे का आईडिया बहुत खतरनाक है और वो आईडिया है कि कला और मतभेद को या इस तरह का कोई भी आईडिया जो मौजूदा हालात को चुनौती देता हो, उसे बैन कर देना चाहिए या उन्हें सेंसर कर देना चाहिए. लोगों को उसे सुनने नहीं देना चाहिए. लेकिन मुझे लगता है कि इस नज्म में वो गर्मजोशी है कि ये लोगों को भ्रष्ट सरकार बदलने के लिए प्रेरित करती है और मुझे लगता है कि ये नज्म हर देश पर लागू होती है. सिर्फ पाकिस्तान और भारत पर ही नहीं बल्कि आज कई देशों पर ये लागू हो सकती है जैसे, मिस्र, ब्राजील- बोल्सोनारो.

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पाकिस्तान में फैज पर पाबंदी को लेकर क्या कहेंगे?

आपको शायद पता होगी कि नज्म ‘हम देखेंगे...’ में एक लाइन है ‘उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा जो मैं भी हूं और तुम भी हो’ तो जो ‘अनल-हक़’ वाली लाइन है वो पाकिस्तान में लगभग हर जगह से ही हटा दी गयी है. और ये उनके प्रकाशक का निर्णय है. वो (फैज) इसके खिलाफ थे. शायद कई लोगों को ये किस्सा पता होगा लेकिन एक कहानी और है जो शायद लोग न जानते हों. ’सर-ए-वादी-ए-सीना’ बंद को पूरा हटाया गया है. ये फिलीस्तीन में चल रहे संघर्षों के समर्थन में लिखी गयी एक नज्म थी. अगर कोई इसे डिटेल में पढ़ना चाहता है तो या उस हटाए गए बंद को पढ़ना चाहता है तो मैंने इस पर एक आर्टिकल लिखा था जिसका शीर्षक मैंने रखा था ‘द मिस्ट्री ऑफ फैज मिसिंग वर्सस’ (फैज के हटाए गए बंद के पीछे का राज). ये उस आर्टिकल का टाइटल था जो ‘द न्यूज’ में पब्लिश हुआ था.

आलोचनाओं को कैसे देखते थे फैज?

परिवार में एक किस्सा सुनाया जाता है और ये वाला मुझे पसंद है. मैंने कहीं लिखा भी था इसके बारे में. शायद, ये 60 या 70 के दशक की बात है. फैज साहब किसी महफिल में थे. उनका एक अलग अंदाज है फैज पढ़ने का अगर आप यूट्यूब पर देखें तो वो जरा शांत तरीके से नज्में पढ़ते हैं. ऐसा लगता है जैसे बहुत बेजारी से नज्म पढ़ रहे हैं. तो एक साहब थे जिन्हें फैज साहब के नज्म पढ़ने का तरीका पसंद नहीं आया, तो वो फैज साहब के पास गए. उन्होंने कहा- ‘फैज साहब आप इतनी अच्छी शायरी लिखते हैं, इतनी खूबसूरत शायरी है, इतनी इंकलाबी शायरी है लेकिन आपके पढ़ने का अंदाज कुछ ठीक नहीं है. आप बोलने का सीखें, थोड़ा गरज के बयां किया करें’ तो फैज साहब सुन रहे थे, उनके हाथ में एक सिगरेट होती थी हर वक्त और वो बोलते कम थे, वो सुनते रहे. जब उन साहब ने अपनी बात पूरी कर ली तो फैज साहब ने अपने अंदाज में सिगरेट का एक कश लिया, उन साहब की तरफ देख कर कहा कि ‘सभी कुछ हम ही करें?’

क्या पाकिस्तान में हैं भारतीय ‘फैज’?

शायर किसी एक देश के नहीं होते हैं. शायर मानवजाति के लिए होते हैं. वो पूरी दुनिया के होते हैं. तो जो ये मुद्दा है कि शायर पाकिस्तान के हैं या भारत के या अमेरिकन हैं या ब्रिटेन के हैं...ये चीज आती ही नहीं है. लेकिन आपके सवाल का जवाब देने के लिए कि क्या पाकिस्तान में कोई भारतीय शायर है तो सबसे पहले मेरे दिमाग में नाम आता है बिस्मिल अजीमाबादी का जो पटना के थे, जिन्होंने ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ लिखा था. आपने नवंबर में लाहौर में चल रहे फैज फेस्टिवल’ में देखा होगा. लाहौर के कुछ छात्रों ने उस नज्म को गाया...जो छात्रों के साथ खड़े रहने के लिए, लोगों को जागरूक करने की कोशिश रहे थे.

देखिए ये पूरा इंटरव्यू.

बता दें, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-कानपुर (आईआईटी-के) ने एक समिति गठित की है, जो ये तय करेगी कि क्या फैज अहमद फैज की नज्म 'हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे' हिंदू विरोधी है. फैकल्टी सदस्यों की शिकायत पर ये समिति गठित की गई है. फैकल्टी के सदस्यों ने आरोप लगाया था कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने ये 'हिंदू विरोधी गीत' गाया था.

नज्म कुछ इस तरह है, "लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से. सब बुत उठवाए जाएंगे, हम अहल-ए-वफा मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे. सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे. हम देखेंगे."


इन्हीं पंक्तियों ने IIT कानपुर में विवाद खड़ा कर दिया है.

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Published: 17 Jan 2020,10:42 PM IST

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