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22 साल अगर आप सत्ता पर काबिज रहे हों और सामने चुनाव हो तो सिर्फ दो चीजें मन में आ सकती हैं. पहली ये कि जीत इस बार भी कदम चूमेगी. हार नामुमकिन है. दूसरी कि 22 साल का बोझ बहुत भारी होता है, जनता कहीं कंधा बदल न ले.
गुजरात में बीजेपी इस वक्त पहले ख्याल से तो कोसों दूर दिखाई देती है. दो दशक में पहली बार पार्टी के भीतर उथलपुथल है, बेचैनी है. गुजरात चुनाव में इस बार जिन चार लोगों पर नजर रहेगी वो हैं- पाटीदारों की नुमाइंदगी करते हार्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर, दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और अलग पार्टी बनाकर नई जमीन तलाशने की कोशिश में लगे शंकर सिंह वाघेला. चार का ये वार, बंटा धार करने का दम रखता है या फिर ये महज कुछ लोगों का चुनावी समर में अपनी किस्मत आजमाने का मौका है...इसे समझना दिलचस्प होगा. आइए इसकी पड़ताल करते हैं.
गुजरात की सियासत में हार्दिक पटेल ने दो साल में जो हासिल कर दिखाया है, उसे पाने में नेताओं को दशकों लग जाते हैं. हार्दिक के पीछे इस वक्त पाटीदार समाज का बड़ा हिस्सा खड़ा दिखाई देता है. हार्दिक के तेवर बेहद तल्ख हैं. बीजेपी ने कभी उनके आरक्षण आंदोलन को डंडे के दम पर कुचला था. लेकिन चुनाव से पहले दुश्मनों को भी साधने की कवायद की जाती है. जहां कभी आंखें नहीं मिलती थीं, वहां गले लगाने की जल्दबाजी दिखाई दे रही है. पर, हार्दिक की तरफ से बीजेपी की पगडंडी पर किसी कदमताल के कोई निशान अब तक बरामद नहीं हुए हैं. यही, पार्टी की सबसे बड़ी चिंता भी है. उल्टे, हर गुजरते दिन के साथ हार्दिक बीजेपी पर हमलावर हो रहे हैं. ज्यादा दिन नहीं बीते जब बीजेपी ने हार्दिक पर दर्ज तमाम केस वापस लेने का ऐलान किया था. लगा कि रिझाने का ये सिलसिला हार्दिक का रुख बदलने में कामयाब होगा. लेकिन सिर्फ लगा...ऐसा कुछ हुआ नहीं.
जब बीजेपी के भीतर ये एहसास जज्ब होने लगा कि हार्दिक साथ नहीं आएंगे तब उसने दूसरे पाटीदार नेताओं से गलबहियों का सिलसिला शुरू किया. पहले साथ आए वरुण पटेल और रेशमा पटेल. दोनों युवा चेहरे हैं. पार्टी को लगा कि हार्दिक न सही दूसरे चेहरे सही. इस रणनीति के जरिए बीजेपी, पाटीदार आंदोलन को तोड़ने की फिराक में थी. लेकिन, ये दांव पार्टी को उल्टा पड़ सकता है. हार्दिक, बिना शक पाटीदार आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा हैं. रेशमा और वरुण का बीजेपी से उस वक्त हाथ मिलाना जब हार्दिक उसे झिड़क रहे हों, पटेल समुदाय के युवाओं के बीच कोई अच्छा संदेश भेजने वाला नहीं. रसी सही कसर नरेंद्र पटेल और निखिल सवानी ने पूरी कर दी. दोनों ने बीजेपी पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया है. ‘पाटीदार अनामत आंदोलन समिति’ के नेता निखिल सवानी, 26 सितंबर को धूमधाम से बीजेपी में शामिल हुए थे. लेकिन, अब वो बीजेपी से बाहर हो चुके हैं. उन्होंने कहा कि बीजेपी के तमाम ऐलान चुनावी हथकंडा साबित हुए. नरेन्द्र पटेल तो बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर कह चुके हैं कि उन्हें बीजेपी में शामिल होने के लिए एक करोड़ देने की डील हुई.
चुनाव से पहले पाटीदार नेताओं का इस अंदाज में छिटकने के दो मायने निकाले जा सकते हैं. एक ये कि इन नेताओं को बीजेपी के साथ जुड़े रहने में अपना कोई सियासी फायदा नजर नहीं आ रहा. दूसरा, ये पाटीदार समाज के गुस्से से बचने का रास्ता भी हो सकता है.
हार्दिक पटेल ने जहां बीजेपी को लेकर अपना रुख साफ कर दिया है वहीं कांग्रेस को लेकर रास्ता पूरी तरह खुला हुआ है. आने वाले कुछ दिनों में इस पर कोई बड़ा ऐलान देखने को मिल सकता है. हार्दिक पटेल फैसला चाहे जो लें, एक बात तय है. गुजरात चुनाव में हार्दिक पटेल फैक्टर को नजरअंदाज करने वाले को भारी सियासी नुकसान उठाना पड़ सकता है.
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ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर अब औपचारिक तौर पर कांग्रेस से हाथ मिला चुके हैं. वैसे जिस राज्य में चुनाव होने जा रहे हों, वहां ऐसी उठापटक आम है. लेकिन अल्पेश और कांग्रेस का ये साथ खास है. वैसे, अल्पेश के पिता खोड़ाभाई कांग्रेस के स्थानीय नेता भी हैं. गुजरात में ओबीसी आबादी करीब 54 फीसदी है. चार बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी ओबीसी वर्ग से ही आते हैं. पिछले 22 साल में बीजेपी को ओबीसी वोटरों को साधने की जरूरत नहीं पड़ी. वो बीजेपी के साथ ही खड़े थे. लेकिन अल्पेश के आने के बाद कई जगह हालात बदल सकते हैं. गुजरात ओबीसी एकता मंच के संयोजक अल्पेश का ओबीसी के बीच ठीकठाक असर माना जाता है. बीजेपी के पास फिलहाल, अल्पेश के बरक्स खड़ा करने के लिए कोई युवा चेहरा नहीं है.
यूं देखें तो अल्पेश कई मंचों पर हार्दिक पटेल के आरक्षण की आवाज का विरोध करते रहे हैं लेकिन मजेदार है ये देखना कि अल्पेश के कांग्रेस से हाथ मिलाने पर हार्दिक ट्वीट कर उन्हें बेस्ट ऑफ लक कहते हैं.
गुजरात में अल्पेश और कांग्रेस के साथ आने का असर सीधे तौर पर टिकटों के बंटवारे पर भी दिखेगा. सूबे की 182 में से करीब 100 सीटों पर ओबीसी वोट निर्णायक साबित हो सकता है.
गुजरात के इन चुनावों का तीसरा बड़ा चेहरा है---जिग्नेश मेवाणी. जिग्नेश, दलित अधिकार मंच के नेता हैं. साल 2016 में उन्होंने ऊना में एक बड़े लेकिन शांति से चलने वाले आंदोलन का नेतृत्व किया. ये ऐलान किया गया कि दलित लोग समाज के लिए गंदा काम नहीं करेंगे यानी पशुओं का चमड़ा निकालने का काम. 35 साल के जिग्नेश, कई साल पत्रकारिता कर चुके हैं. वो लोगों की नब्ज समझते हैं. सियासत में जनता की नब्ज समझना बड़े काम का साबित होता है. गुजरात में दलितों की आबादी करीब 7 फीसदी है. लेकिन, जिग्नेश अगर कांग्रेस के साथ औपचारिक तौर पर जुड़ते हैं तो इसके मायने कुछ ज्यादा होंगे. हालांकि, चर्चा तो जिग्नेश के आम आदमी पार्टी के साथ जाने को लेकर भी है. जिग्नेश का अगला कदम बहुत जल्द सामने आ जाएगा लेकिन जो चीज अभी से सामने है वो ये कि जिग्नेश मेवाणी, बीजेपी के किले की बुनियाद कमजोर होने पर आखिरी धक्का देने लायक ताकत जुटाने का दम रखते हैं.
साल 1995 में गुजरात पहला ऐसा सूबा बना जहां बीजेपी ने बहुमत की सरकार बनाई. पार्टी को 182 में से 121 सीटें मिलीं. इस बड़ी कामयाबी का सेहरा शंकर सिंह वाघेला के सिर भी बंधा. लेकिन, कुछ सालों के बाद चीजें बदल गईं और मनमुटाव होने पर वो कांग्रेस में शामिल हो गए. शंकर सिंह वाघेला गुजरात की राजनीति का वो चेहरा जो अक्सर एकला चलो के रास्ते पर अड़ा रहा है. इस बार वो जन विकल्प मोर्चा के साथ तैयार हैं. हालांकि, चुनाव में कोई बड़ा उलटफेर कर सकने के उनके आसार कम ही दिखते हैं. कुछ लोग तो वाघेला को बीजेपी की बी टीम भी मानते हैं. उधर, 11 उम्मीदवारों के साथ उतर रही आम आदमी पार्टी का कहना है वो उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है जहां उसका थोड़ा-बहुत आधार है.
तो हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी और शंकर सिंह वाघेला----ये हैं वो चार वार जिन पर गुजरात चुनाव में सबकी नजर रहेगी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए गुजरात चुनाव बीते तीन साल में सबसे बड़ा इम्तेहान साबित होने जा रहा है. और ये चेहरे सबसे बड़ी चुनौती.
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