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उन्होंने प्रेमचंद की लिखी एक कहानी पढ़ी और उनकी जिंदगी फिर पहले जैसी नहीं रही. हिंदी दिवस के मौके पर हम ऐसी कहानियां आपतक ला रहे है, जहां हिंदी के कारण बदलाव आया. पहली कड़ी में हमने आपको उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर की गायत्री की कहानी सुनाई. दूसरी कहानी मध्य प्रदेश के ग्वालियर (Gwalior, MP) की 36 वर्षीय रीना शाक्य (Reena Shakya) की है.
बचपन से ही रीना के सवाल, सपने, रूचि बाकी बच्चों से अलग थे. अपनी किशोरावस्था को याद करते हुए वो कहती हैं, “किसी के लिए भी उनके टीनेज के वर्ष बेहद तूफानी होते हैं. मेरे लिए भी थे. अपनी किशोरवस्था में ही मैंने जान लिया था कि ये दुनिया जैसी है, उसे वैसे स्वीकारना मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा.”
लैंगिक असमानता और जाति के दोहरे भेदभावों से भरे समाज से लड़ते-लड़ते रीना समय के साथ बदलाव लाने की अपनी सोच में काफी परिवपक्व हो गई हैं जो उनकी बातों में झलकता है.
11वीं में छात्र संगठनों के साथ जुड़ कर अपना सफ़र शुरू करने वाली रीना आज अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ के ग्वालियर ज़िले की अध्यक्ष हैं और नीव शिक्षा जन कल्याण समिति की सचिव भी. इन 20 सालों में उन्होंने जाति और लिंग आधारित भेदभाव और हिंसा के खिलाफ विभिन्न अभियान चलाए और कुछ का नेतृत्व किया.
रीना के जीवन में किताबों का गहरा प्रभाव रहा है. रीना कक्षा 9वीं में थी जब पहली बार उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी पढ़ी थी जिसने उनकी सोच को झकझोर दिया. वो कहती हैं, “प्रेमचंद को जब आप पढ़ते हैं तो आप सामाजिक परिवेश को जानते हैं.
उनकी कहानियों से आप जानेंगे कि कैसे जाति समाज को जकड़े हुए है.” जल्द ही रीना ने पढ़ने के साथ साथ आगे बढ़कर अपनी आवाज़ उठाने का भी महत्व समझा. जिस सामाजिक परिवर्तन की वो कल्पना कर रही थीं, उसको संभव बनाने के लिए वो जमीनी स्तर के कामों में सक्रीयता से भाग लेने लगीं.
रीना के अनुसार अपने मुद्दे उठाने और हिन्दी भाषा में एक कड़ी है. वो अपने सभी प्रचार में या सोशल मीडिया पोस्ट में हिन्दी का प्रयोग करती हैं क्योंकि ये भाषा उन्हें उनकी मां ने सिखाई और उन्हें ऐसा लगता है कि मानो इस भाषा की कमान उनके हाथों में है. वो बताती हैं कि कैसे विभिन्न मुद्दों पर लिखी उनके कई हिन्दी पोस्ट सोशल मीडिया में बहुत वायरल हुए.
वो अपने सामाजिक कार्य की तुलना भी हिन्दी से करती हैं, “जैसे मैं अकेले नहीं बल्कि सबको साथ लेकर किसी मुद्दे पर आवाज़ उठाती हूं वैसी ही हमारी हिन्दी भाषा है. ये सब भाषाओं का मेल है. सबको साथ लेकर चलती है हिन्दी, कई भाषाओं का समन्दर है हिन्दी.”
एक मुद्दा जो रीना के दिल के बेहद करीब है वो है, माहवारी से जुड़े स्वास्थ्य और सुविधाओं का. उन दिनों जब देश में सैनेटरी पैड पर 12% जीएसटी लगता था तो रीना और उनके संगठन ने जमीनी स्तर पर इसका सार्वजनिक रैली और प्रदर्शन द्वारा विरोध किया था. माहवारी के दौरान लड़कियों और महिलाओं के संघर्ष के मुद्दे के प्रति उनका जज्बा, उनके खुद के निजी अनुभव से ही आता है.
बड़ी होने पर उन्होंने देखा की ये कहानी सिर्फ उनकी नहीं बल्कि उनके प्रदेश और देश की हजारों लड़कियों की भी कहानी थी. उनके अनुसार आज भी देश में लाखों लड़कियां माहवारी शुरू होने पर स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं. स्कूलों में माहवारी के समय जरूरी व्यवस्थाओं का आभाव जैसे सैनेटरी पैड, साफ टॉयलेट और पानी, इसका एक प्रमुख कारण है.
इसी समस्या पर सरकार और मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए उन्होंने Change.org हिन्दी पर एक पेटीशन भी शुरू की है जिसमें वह मध्य प्रदेश सरकार से मांंग कर रही हैं कि एमपी के सभी सरकारी स्कूलों में सैनेटरी पैड निशुल्क उपलब्ध कराया जाए, ताकि माहवारी शुरू होने पर लड़कियों को अपनी शिक्षा बीच में ही ना छोड़नी पड़े. रीना को अपने पेटीशन Change.org/PadWaleSchool पर अब तक 6 हजार से ज्दाया लोगों का समर्थन मिल चुका है.
रीना आज एक ऐसी दुनिया की कल्पना करती हैं जहां किसी भी तरह की गैर बराबरी ना हो- जहां बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और वैज्ञानिक शिक्षा मिल सके, जहां सामान्य लड़कियां भी माहवारी के दौरान साफ सफाई रख सके, जहां सभी लोगों को सामान्य अधिकार मिल सके. रीना कहती हैं, “सामाजिक परिवर्तन लाने की लड़ाई लंबी है, हमारा तो इसमें बस एक छोटा सा योगदान है.”
(ये स्टोरी हिंदी दिवस के अवसर पर change.org के सहयोग से क्विंट हिंदी पर प्रकाशित की गई है)
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