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सरकार ने जोशीमठ के बिगड़ते हालात को देखते हुए वहां सभी निर्माण कार्य फिलहाल रोक दिए हैं. एनटीपीसी के जिस प्रोजेक्ट को लेकर लोगों में गुस्सा है, वहां भी काम रोक दिया गया है. 6 जनवरी को जोशीमठ की जनता एनटीपीसी के दफ्तर का घेराव कर रही है. पिछले 16 साल से यहां कंपनी का 530 मेगावॉट का प्रोजेक्ट निर्माणाधीन है. उत्तेजित लोगों ने कहा है कि वह किसी भी कीमत पर इस प्रोजेक्ट को बंद कराएंगे.
लेकिन हिमनदों के मोरेन पर बसे जोशीमठ की हालत किसी एक प्रोजेक्ट के कारण ही जर्जर नहीं हुई है.
भूविज्ञानी नवीन जुयाल याद करते हैं कैसे अन्य जानकारों के साथ मिलकर उन्होंने जोशीमठ के पास 1980 के दशक में बन रहे विष्णुप्रयाग हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के खतरों पर सरकार को आगाह किया था. जुयाल कहते हैं तब गांधीवादी नेता और पर्यावरणविद चंडीप्रसाद भट्ट के कहने पर उन्होंने जोशीमठ के पास लामबगड़ गांव के समीप एक एवलॉन्च का अध्ययन किया था, जहां निजी कंपनी जेपी का 400 मेगावॉट का प्रोजेक्ट बन रहा था.
असल में 2,500 मीटर की ऊंचाई को वैज्ञानिक शीत हिमरेखा यानी विंटर स्नो लाइन मानते हैं, जहां तक सर्दियों में बर्फ रहा करती है. जोशीमठ जिस मलबे के पहाड़ पर बसा है, उस ऊंचाई पर बसे हिमालयी क्षेत्र को पैरा ग्लेशियल जोन कहा जाता है यानी इन जगहों पर कभी ग्लेशियर थे, लेकिन कालांतर में ग्लेशियर पिघल गए और उनका मलबा (मोरेन) रह गया. वैज्ञानिक अपनी भाषा में ऐसी स्थिति को डिस-इक्विलिब्रियम (disequilibrium) कहते हैं, यानी ऐसी जगह जहां जमीन का संतुलन बना नहीं है.
भू-विज्ञानी ऐसे क्षेत्र में भारी निर्माण को सही नहीं मानते. जुयाल समझाते हैं, "पैरा ग्लेशियल क्षेत्र का मलबा या मोरेन फ्रंटलाइन पर तैनात सेना की तरह है, जो कि अपने कमांडर के आदेश का इंतजार कर रहा है. हम भूकंप, तेज बारिश, बाढ़ या जलवायु परिवर्तन जैसी किसी एक्सट्रीम वेदर की घटना को कमांडर का आदेश मान सकते हैं. ऐसी स्थिति होने पर यह सारा मोरेन किसी सेना की टुकड़ी की तरह खिसक कर आगे बढ़ सकता है और तबाही आ सकती है."
भू-विज्ञानी बताते हैं कि भारत में एक समस्या ये भी है कि पैराग्लेशियल इलाकों के गतिविज्ञान (डायनामिक्स) और वहां स्थित मलबे के चरित्र और मात्रा को लेकर अध्ययन न के बराबर किया गया है. ये संवेदनशील हिमालयी बनावटों से निपटने में एक बड़ी समस्या पैदा करता है.
लेकिन समस्या सिर्फ हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स या सड़क निर्माण के कारण ही नहीं है. जोशीमठ बदरीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी (जो कि यूनेस्को की विश्व धरोहर है) जैसे दर्शनीय जगहों का प्रवेश द्वार है. यहां लोग औली में विंटर स्पोर्ट्स के लिए भी आते हैं. इन जगहों ने रोजगार और व्यापार की संभावनाओं को बढ़ाया, तो यहां बसावट भी बढ़ती गई. आज जोशीमठ की आबादी करीब 25 हजार है और यहां बहुमंजिला रिहायशी और व्यवसायिक इमारतें और होटल हैं.
जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के अतुल सती कहते हैं, "सरकारी अधिकारी अक्सर यहां बने घरों को जमीन दरकने और पूरी समस्या की जड़ बताते हैं, जो ठीक नहीं है."
सती सवाल करते हैं कि जोशीमठ के लोगों ने एनटीपीसी के प्रोजेक्ट के आने का विरोध किया तो भी सरकार ने लोगों की बात क्यों नहीं सुनी और 16 साल बाद भी परियोजना क्यों नहीं पूरा हो पाई है.
जोशीमठ देश को सीमावर्ती इलाके से जोड़ता है. 1962 में चीन के हमले के बाद सामरिक स्थित को मजबूत करने के लिए यहां सीमा पर सेना की तैनाती बढ़ी और निर्माण कार्य हुए. 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने इस क्षेत्र को बेहद संवेदनशील बताते हुए किसी भी साइट पर जांच के बाद ही हो कोई निर्माण करने, ढलानों पर खुदाई या ब्लास्टिंग कर कोई बड़ा पत्थर न हटाने और पर्याप्त वृक्षारोपण की सिफारिश की और कहा कि जोशीमठ के पांच किलोमीटर के दायरे में किसी तरह की निर्माण सामग्री एकत्रित करने पर पूरी पाबंदी हो.
हालांकि, मिश्रा कमेटी की सिफारिशों से बहुत पहले दो स्विस भू-विज्ञानियों आर्नोल्ड हिम और ऑगस्टो गैंसर ने अध्ययन कर यहां की संवेदनशील जियोलॉजी के बारे में लिखा था, लेकिन सरकारें इन सभी जानकारियों को नजरअंदाज करती रहीं.
टिहरी के वानिकी महाविद्यालय में जियोलॉजिस्ट डॉ सरस्वती प्रकाश कहते हैं कि जोशीमठ से लोगों को हटाया ही जाना होगा और इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. डॉ प्रकाश कहते हैं, "इस कड़वी सच्चाई की स्वीकारोक्ति आज की पुनर्वास नीति की पहली शर्त होनी चाहिए, क्योंकि हकीकत से मुंह छुपाकर कोई नीति सफल नहीं हो सकती."
हिमालय पर शोध कर रहे जानकार बताते हैं कि उत्तराखंड के सैकड़ों गांव आज जोशीमठ की तरह ही संकटग्रस्त हैं, जहां लोगों का रहना सुरक्षित नहीं है और देर-सबेर उन्हें वहां से हटना होगा. चमोली जिले के जोशीमठ के अलावा चाईं, रेणी, गणाई और दाड़मी गांव के लोग विस्थापन की मांग बरसों से कर रहे हैं. इसी तरह उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ जिलों के कई गांवों की हालत नाजुक है.
विडंबना है कि राज्य के हजारों गांव रोजगार और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के न मिलने के कारण खाली हो गए हैं. सरकार खुद मानती है कि 1,000 से अधिक गांव भुतहा गांव हैं (घोस्ट विलेज) यानी या तो वहां कोई नहीं रहता या इक्का दुक्का परिवार मजबूरी में हैं.
उत्तराखंड की 60% से अधिक भूमि, वन भूमि है, जहां पर कानूनी रूप से पुनर्वास नहीं किया जा सकता. क्या लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ रोजगार के साधन मुहैया कर भौगोलिक रूप से स्थाई और सुरक्षित उन गांवों में बसाया जा सकता है, जिन्हें ‘भुतहा गांव’ कहते हैं.
आधुनिक हिमालय के इतिहास पर पिछले 40 सालों से रिसर्च कर रहे शेखर पाठक कहते हैं, "पहाड़ में लोगों को हटाकर कहीं और बसाना आसान नहीं है, क्योंकि पहाड़ में बसावट के लिए जगह का अभाव है. क्या सरकार हर किसी को पहाड़ी क्षेत्र से हटाकर देहरादून, हरिद्वार या हल्द्वानी जैसे जगहों पर भेज सकती है, जहां पहले से ही संसाधनों पर दबाव है?"
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