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वीडियो एडिटर: विशाल कुमार और संदीप सुमन
ये आवाज एक युवा कश्मीरी की है, जो श्रीनगर में किराने की दुकान चलाता है. पहचान छिपाने की शर्त पर वो हमसे बात करने को तैयार हुआ था. उसे डर था कि अगर उसने अपने मन की बात खुलकर कही तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती है, टॉर्चर कर सकती है. वो कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने से खफा है. उसे लगता है कि सरकार उसपर जुल्म कर रही है, सरकार ने उसे पिंजरे में बंद कर दिया है. वो भारतीय मीडिया से भी खफा है क्योंकि वो कश्मीर के असली हालात के बारे में नहीं दिखा रहा.
मैं चार दिन कश्मीर में थी. जब मैं दिल्ली लौटी तो मेरी मां ने पूछा- कश्मीर में सब ठीक तो रहा? वहां तो अब सब ठीक है. मैंने उनसे पूछा- तुमसे किसने कहा कि वहां सब ठीक है? मां का जवाब था- हर चैनल तो यही दिखा रहा है कि कश्मीर में हालात सामान्य हैं. मैं अपनी मां को दोष नहीं दे सकती. आखिर न्यूज चैनलों पर जो दिखाया जाएगा, आम आदमी, उसी को तो सच मानेगा!
आखिर सच दिखाना ही तो पत्रकारों का काम है. लेकिन क्या ज्यादातर भारतीय मीडिया कश्मीर का सच दिखा रहा है? जवाब है- नहीं. मुझे समझ नहीं आता कि इंडियन मीडिया को सच दिखाने से कौन रोक रहा है? क्योंकि सच्चाई तो ये है कि आज कश्मीरी डरा हुआ है, गुस्से में है. उसे लगता है कि उसे पिंजरे में कैद कर दिया गया है. मैं चार दिन कश्मीर में रही और मुझे एक भी कश्मीरी नहीं मिला जो आर्टिकल 370 हटने से खुश हो. और ऐसा भी नहीं कि मैंने एक ही तरह के लोगों से बात की. मैंने जिन लोगों से बात की उनमें डिफेंस के लोग थे, ड्राइवर थे, डॉक्टर थे, गृहणियां थीं, सरकारी कर्मचारी और छात्र, सब थे.
फिर मुझे लगा कि आखिर वो कौन लोग हैं जो इन न्यूज चैनलों को बताते हैं कि वो खुश हैं. मैंने खुद से सवाल पूछा- मुझसे कोई गलती तो नहीं हो रही? इस बात का पता लगाने के लिए मैंने एक बड़े चैनल के रिपोर्टर से बात की.
एडिटर का ऑर्डर ना मानें तो क्या करें? उसकी आवाज में झल्लाहट साफ सुनी जा सकती थी. वो भी मेरी तरह एक रिपोर्टर है. वो भी खबरों के लिए कश्मीर की सड़कों को छान रहा है. लेकिन उसकी खबरों पर आपकी नजर पड़े उससे पहले उसे एडिटर स्कैन करते हैं. एडिटर की नजर में आए बिना कोई खबर आपतक नहीं पहुंच सकती. हालांकि सब झल्लाहट में नहीं हैं.
कुछ ऐसे भी हैं जो सच नहीं दिखाने को सही मानते हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि देश को झूठ दिखाकर वो ‘देशभक्ति’ कर रहे हैं. आलम ये है कि इन तथाकथित देशभक्तों की उन पत्रकारों के साथ कहासुनी भी होती है, जो इनसे पूछते हैं कि आखिर वो सच क्यों नहीं दिखाते. ‘देशभक्त’ रिपोर्टर ये दलील भी देते हैं कि सड़कों पर सब शांत है, इसलिए हम झूठ कहां दिखा रहे हैं?
अब अगर कर्फ्यू और सड़कों पर भारी तादाद में सुरक्षा बलों की तैनाती को ‘शांति’ कहा जा रहा है, लोगों को घरों में ही रहने को मजबूर करने को सामान्य हालत कहा जा रहा है, तो मैं यही कहूंगी कि ये पत्रकार गलत कह रहे हैं. कई बार खामोशी खुद अपनी सदा होती है.
कश्मीर में कई बार लोगों ने मुझे भी दुत्कारा, क्योंकि आखिर मैं भी तो भारतीय मीडिया का हिस्सा हूं. एक नहीं, कई बार उन्होंने कहा - हमें भारतीय मीडिया पर भरोसा नहीं. हमें विदेशी मीडिया पर यकीन है क्योंकि सिर्फ वही सच दिखा रहे हैं.
सवाल ये है कि क्या कोई सच को हमेशा के लिए दफन कर सकता है? अब जब इंटरनेट और मोबाइल फोन से बैन हट रही है तो क्या सच को दबाया जा सकेगा?
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