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कोलकाता से दिल्ली पहुंची पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बेचैनी थोड़ा ध्यान खींच रही है. आखिर कोलकाता में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के साथ बातचीत शुरु करने वाली ममता बनर्जी ने आनन-फानन में तीसरे मोर्चे की कवायद का ‘हेडक्वार्टर’ दिल्ली को क्यों बना दिया.
इसकी कई दिलचस्प वजहें हैं.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी की दोस्ती ने विपक्षी एकता की मजबूत मिसाल पेश की. फूलपुर और गोरखपुर में बीजेपी के हैरान कर देने वाली जीत हासिल करने के बाद अखिलेश और मायावती बीएसपी उम्मीदवार को राज्यसभा नहीं भेज पाए. लेकिन उस नाकामी को मायावती ने जिस मेच्योरिटी से हैंडल किया उसने कई राजनीतिक पंडितों के कान खड़े कर दिए.
ममता के दौरे के पहले दिन उनकी जो मुलाकात चर्चा में रही वो थी शरद पवार से. एनसीपी प्रमुख शरद पवार अकेले ऐसे नेता है जो ममता बनर्जी और सोनिया गांधी दोनों से बराबर की नजदीकियां रखते हैं. वो सोनिया को इस बात के लिए मना सकते हैं कि विपक्षी गठबंधन बनने की सूरत में कांग्रेस प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहले से अपनी दावेदारी ना ठोके. यानी ममता बनर्जी के पीएम बनने की संभावनाएं खुली रहें.
ये मान भी लिया जाए कि 2019 में कांग्रेस और बीजेपी के बिना फेडरल फ्रंट सरकार बना भी लेता है तो वो ज्यादा नहीं चल पाएगी और उसके बाद वो बीजेपी के लिए बंपर जीत के दरवाजे खोल देगी.
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अपने दौरे के पहले दिन संसद भवन में ममता ने एनसीपी के अलावा टीडीपी, टीआरएस और शिवसेना नेताओं से मुलाकात की.
शरद पवार को ममता ये भी बताएंगी कि वो महाराष्ट्र में शिवसेना को तीसरी फोर्स बनने के बजाए एनसीपी और कांग्रेस की मदद के लिए मना रही हैं. यानी एक तीर से दो निशाने.
सोनिया गांधी से मुलाकात ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे का सबसे हाई-प्वाइंट है. सब जानना चाहते हैं कि जिस ममता ने विपक्षी गोलबंदी की शुरुआत ही इस बात से की थी कि तीसरा मोर्चा बीजेपी के साथ कांग्रेस के भी खिलाफ है, वो आखिर सोनिया गांधी से क्यों मिल रही हैं?
दरअसल किसी भी मोर्चे में कांग्रेस पार्टी का होना उसे स्वाभाविक तौर पर मोर्चे का ‘बिग ब्रदर’ बना देता है. यही ममता की सबसे बड़ी दिक्कत है.
इन तीन विकल्पों में से आखिरी दो चुनने के लिए कांग्रेस को हिम्मत भी दिखानी होगी और दरियादली भी. ममता-सोनिया मुलाकात में सौदेबाजी ये भी हुई कि कांग्रेस साथ आने की स्थिति में 2019 के प्रधानमंत्री पद से अपनी स्वाभाविक दावेदारी छोड़े.
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ममता के जेहन में 2021 की चुनौती भी है जब पश्चिम बंगाल में विधानसभा के चुनाव होने हैं. लेफ्ट तो पहले से है ही, बीजेपी भी एेड़ी-चोटी का जोर लगा रही है. ऐसे में ममता चाहती हैं कि वो कांग्रेस के जरिये सीपीएम को मैनेज करें. सीधा ना सही, टेढ़ा ही सही लेकिन ऐसा कोई समीकरण बने जो पश्चिम बंगाल को त्रिकोणीय के बजाए बीजेपी से सीधी लड़ाई बना दे.
बीजेपी के एक नेता मजाक किया करते थे कि तीसरा मोर्चा दरअसल एक पार्किंग एरिया है जिसमें सुविधा के मुताबिक छोटी पार्टियां अपनी गाड़ी खड़ी करती हैं और मौके के मुताबिक उन्हें लेकर वापिस चली जाती हैं.
लेकिन इस बार बीजेपी की क्रूर चुनौती ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को छोटे स्वार्थ छोड़कर एक साथ आने के लिए मजबूर कर दिया है. ऐसे में बीजेपी के खिलाफ बिखरे गठबंधन के एक साथ आने की ये कोशिशें वाकई गंभीर नजर आ रही हैं.
यही वजह है कि ममता बनर्जी ने अपना गेम प्लान बदल दिया है. अब वो गैर-बीजेपी गैर-कांग्रेस फ्रंट के बजाए है ‘फेडरल फ्रंट+कांग्रेस’
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