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कैमरा: शिव कुमार मौर्य, अतहर राथर
वीडियोे एडिटर: विवेक गुप्ता
देश के सबसे तजुर्बेकार नेताओं में से एक शरद पवार ने 2019 के आम चुनाव समेत तमाम मुद्दों पर क्विंट के खास शो ‘राजपथ’ में एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया के सवालों का जवाब दिया. पवार विपक्षी एकता के सूत्रधार हैं.
कोई भी पाॅलिटिकल पार्टी का नेता इस तरह की बात करे, ये आश्चर्य की बात नहीं. ये साथियों का हौसला बढ़ाने के लिए कहा जाता है. आज देश में बीजेपी का ग्राफ नीचे जा रहा है. ऐसी स्थिति में हौसला बढ़ाने के लिए इस तरह के बयान की जरूरत है. मोदी जी समझदार, पाॅलिटिकल नेता हैं. लेकिन मैं इस बयान को ज्यादा महत्व नहीं देता.
पिछले कुछ महीनों में 10 उपचुनाव हुए हैं. 10 में 7-8 सीटों पर बीजेपी हारी. केरल, प. बंगाल जैसे राज्यों में हार मिलना समझ सकता हूं लेकिन यूपी में भी इनकी पार्टी हारी. सीएम, डिप्टी सीएम अपनी सीटें नहीं बचा पाए. इससे साफ संकेत है कि उनका ग्राफ नीचे जा रहा है.
महाराष्ट्र में 2 या 3 तरह की शक्तियां चुनाव लड़ेंगी. कांग्रेस और एनसीपी मिलकर काम करेगी. कोशिश है कि बीएसपी को भी साथ लेकर काम किया जाए. नागपुर में उनका अलग स्थान है. दूसरा, बाबा साहब अंबेडकर की विचारधारा के लोगों की महाराष्ट्र में अच्छी-खासी संख्या है लेकिन वो न कभी बीजेपी के नजदीक थी और न आज है. वो सेक्शन क्या करेगा ये मायने रखता है. ये समुदाय महाराष्ट्र में चुनाव को दिशा देने वाला फोर्स है.
बाबा साहब अंबेडक की पार्टी का सिंबल हाथी था. अंबेडकर विचारधारा के वोटर्स के मन में ये सिंबल आज भी बाबा साहब का सिंबल है. और बीएसपी के पास ये सिंबल है. बाबा साहब के बाद मायावती के प्रति दलित लोगों के बीच ये भावना है कि वो अपनी ताकत पर खड़ी हुई नेता हैं. इसलिए दलित उनका सम्मान करते हैं. अगर बीएसपी, कांग्रेस और एनसीपी साथ आ जाए तो ये कॅाम्बिनेशन जबरदस्त काम कर सकता है.
तीसरा, आज बीजेपी और शिवसेना के बीच रिश्ते सही नहीं है. अगला चुनाव वो अलग लड़ने की बात कर रहे हैं. ऐसे में परिवर्तन के लिए महाराष्ट्र एक अच्छा नंबर दे सकता है.
हम पहले कांग्रेस से बात करेंगे. अगर वो राजी हों तो हम आगे बीएसपी से बात करेंगे.
ये स्थिति बन सकती है. विकल्प के लिए लोग, पार्टियां तैयार हैं लेकिन नेशनल लेवल पर नहीं बल्कि स्टेट लेवल पर. हर पार्टी को देखना होगा कि कहां किसकी कितनी पकड़ है. उदाहरण के तौर पर अगर एनसीपी यूपी में ज्यादा सीट लेने की बात करे तो ये फिजूल बात है. तमिलनाडु में हमें स्वीकार करना होगा कि स्टालिन की पार्टी के पास ताकत है. हमें एक नंबर की सीट डीएमके को देनी पड़ेगी. कर्नाटक में देवगौड़ा को देनी पड़ेगी. महाराष्ट्र में एनसीपी को देनी पड़ेगी. गुजरात, एमपी, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब में कांग्रेस को एक नंबर की पोजिशन देनी पड़ेगी.
हम सब स्टेट अल्टरनेटिव की बात करें तो इससे एक अच्छा नंबर आ सकता है जो सरकार बना सकती है. लोग सवाल उठाते हैं कि ये कैसे होगा. मैं मिसाल देता हूं. ये पहले भी हुआ है. इंदिरा गांधी ने 1976 में इमरजेंसी हटाई. इसके बाद 1977 में चुनाव हुए. देश के सामने कोई विकल्प नहीं था. जयप्रकाश नारायण ने मिलकर काम करने का बयान दिया, पर पार्टी नहीं बनाई. इलेक्शन के बाद जनता पार्टी बनी और इनके नेता मोरारजी देसाई पीएम चुने गए. चुनाव के समय पीएम कैंडिडेट की घोषणा नहीं की गई थी. मगर जनता ने अल्टरनेटिव दे दिया.
यही स्थिति 2004 में थी. हम अलग-अलग चुनाव लड़े. एक सुबह मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी घर पर पहुंचे और कहा- हम मिलकर काम करें तो क्या कोई अल्टरनेटिव हो सकता है? मैंने सहमति दे दी. यूपीए बनी और 10 साल तक देश में सरकार चली. आज स्थिति वैसी ही दिखाई देती है. कोई सिंगल पार्टी अल्टरनेटिव रखने के पक्ष में नहीं है. लेकिन अलग-अलग पार्टी मिलकर शक्तिशाली अल्टरनेटिव दे सकते हैं.
देश में कहीं भी जाएं, देखें, लोग विकल्प ढ़ूंढ रहे हैं. राजस्थान रैली में राहुल गांधी को जबरदस्त रिस्पाॅन्स मिला. लोगों के मन में विश्वास है कि वहां कांग्रेस समझदारी से लीडरशीप इशू रिसाॅल्व कर के जाएगी. लोग उन्हें सहयोग देने के लिए तैयार हैं. कांग्रेस का अनुभव लोगों ने स्वीकार किया है. राजस्थान में परिवर्तन लाने का मूड है. जगह-जगह पर यही जनता का मूड है. पार्टियों को समझदारी से काम करना होगा.
1977 में इंदिरा गांधी शक्तिशाली नेता थीं. संसद में उन्हें दुर्गा कहा गया. देश उनके साथ था. लेकिन वो हार गईं. लोगों को अल्टरनेटिव चाहिए था. लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र में, जो भी इंदिरा के खिलाफ खड़ा हुआ उसे वोट दिया था. ऐसी ही स्थिति आज है, लोगों को अल्टरनेटिव चाहिए.
विदर्भ, महाराष्ट्र और एमपी का बाॅर्डर है. उस इलाके में कई जगह भाषा एक है. आपसी रिश्ते हैं. इसका फायदा होगा. कांग्रेस को हम जैसे पड़ोसियों के साथ से फायदा हो सकता है. बीएसपी, एनसीपी और समाजवादी पार्टी एमपी में कांग्रेस का साथ दे रही है. इससे जरूर फायदा होगा.
देश की राजनीति में परिवर्तन लाने में यूपी की मुख्य भूमिका रही है. और सबको मानना होगा कि अखिलेश यादव और मायावती के पास वहां की ताकत है. इन लोगों ने अजीत सिंह और कांग्रेस से बात की. दोनों ने उन्हें सहयोग देने की बात रखी. मुझे लगता है ये लोग यहां समझदारी से काम करेंगे. ये सब मिलकर देश का नक्शा बदल सकते हैं. सीटों पर चर्चा हुई है या नहीं इसकी जानकारी नहीं है लेकिन ये मिलकर काम करने का मन बना चुके हैं. मैं सीटों की बात नहीं करूंगा. सीटों की बात करने से ताकत कम हो सकती है. सबको साथ लाना ज्यादा जरूरी है.
ममता बनर्जी की टीएमसी बंगाल में एक बड़ी ताकत हैं. लेफ्ट और कांग्रेस को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते. ये एक होंगे या नहीं पता नहीं. मेरी बात एक लेफ्ट के नेता के साथ हुई. लेफ्ट ममता बनर्जी के साथ नहीं है. लेकिन दिल्ली में बदलाव लाने के लिए वो साॅफ्ट लाइन अपनाने को तैयार हैं. वहां समस्या आएगी.
आंध्र और प. बंगाल में कांग्रेस को वहां के पहले नंबर की पार्टी को स्वीकार करनी पड़ेगी. सीमित सीटों के साथ समझौता कर एकजुटता दिखाने की समझदारी कांग्रेस को दिखानी होगी.
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों से पहले, 2 महीने में ये चर्चा खत्म करना चाहिए. विपक्ष के नेता को अलग-अलग राज्यों में जाकर एक बड़ा कैंपेन करने की जरूरत है. चाहे पार्टी का इंट्रेस्ट हो या न हो लेकिन देश के सामने एक नक्शा, एक विकल्प देने की जरूरत है. मौजूदा समय में समझौता और कैंपेन ये दोनों बहुत जरूरी है.
सीधी बात है कि सबका मूड है कि हम विकल्प देने पर फोकस करें. ऐसे में व्यक्तिगत भावनाएं अगर सामने आएंगी तो नुकसान हो जाएगा, इसका अंदाजा सबको है. एक रिपोर्ट आई थी कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में ये चर्चा हुई कि कांग्रेस का नेतृत्व ही पीएम कैंडिडेट होगा. लेकिन कांग्रेस ने 10 दिन के अंदर कहा कि मिलकर काम करने की जरुरत है, मीटिंग में पीएम के चेहरे को लेकर कोई बात नहीं हुई.
ये समझदारी राहुल गांधी ने खुद दिखाई.
राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन कैंडिडेट को लेकर कई मीटिंग हुई. मुझे बोला गया कि आप अपने कैंडिडेट को उतारें. मैंने कहा- हमारे पास मेजाॅरिटी नहीं है. और जब तक ओड़िसा का साथ नहीं है, तब तक मैं अपना कैंडिडेट उतारने की बात स्वीकार नहीं करूंगा.
नवीन पटनायक ने राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन के लिए नीतीश कुमार के कैंडिडेट को समर्थन दिया. मैंने नवीन पटनायक से बात की थी. पर उन्होंने कहा कि कुछ ही दिन पहले इस पर उन्होंने नीतीश कुमार से उनके कैंडिडेट का साथ देने का कमिटमेंट कर दिया था. मुझे नहीं लगता की बीजेपी के लिए उन्होंने ऐसा किया. उन्होंने सिर्फ नीतीश जी के प्रस्ताव, गुजारिश को माना. अगर हम पहले बात करते तो उनका फैसला हमारी तरफ हो सकता था.
मुझे लगता है कि उन्होंने मन बना लिया है. भले ही उन्होंने डिप्टी चेयरमैन के चुनाव के लिए अपना वोट दिया क्योंकि हो सकता है कैंडिडेट डायरेक्ट बीजेपी से नहीं था. दूसरा, अभी चुनाव में देर है इसलिए उनकी तरफ से सहयोग दिया गया हो. लेकिन जिस तरह का रुख है उससे साफ है कि वो बीजेपी का साथ नहीं देंगे.
शिवसेना का इंप्रूवमेंट हो सकता है, इससे इनकार नहीं. लेकिन बीजेपी को नुकसान होगा. हर पार्टी का बेस कहां है ये सबको पता है. मुंबई में सीटें ज्यादा हैं. हम से ज्यादा शिवसेना का आधार है. अगर वो बीजेपी के साथ जाएंगे तो उनकी सीटें कम हो सकती हैं. मगर वो अकेले लड़ेगी तो उनके लिए पूरा मैदान खाली है. मुझे लगता है अलग लड़ने से उन्हें ज्यादा लाभ हो सकता है.
बाहरी लोगों को महाराष्ट्र की सोशल स्थिति अच्छे से मालूम नहीं. राजनीति में अलग-अलग जगह मराठा समुदाय के लोग हैं. लेकिन किसानों की आत्महत्या के मामले में भी महाराष्ट्र आगे है. महाराष्ट्र में गोखले इंस्टिट्यूट आॅफ इकनाॅमिक्स एंड पाॅलिटिक्स जिसकी शुरुआत गोखले जी ने 100 साल पहले की थी.
सीएम ने सत्ता में आने के बाद मराठों की मांग 100 दिन में पूरी करने की बात कही थी. लेकिन कुछ नहीं हुआ.
इस संगठन के बारे में हम सब जानते हैं. ये कई दिन से चल रहा है. इनका एक न्यूजपेपर भी है. इसमें कुछ विचारधारा के बारे में जहरीले विचार लिखते हैं.
कई ऐसे लोगों की हत्या हुई जिनकी फोटो पर क्राॅस लगाकर उन्होंने पेपर में छापा था. दाभोलकर, पनसारे, गौरी लंकेश की हत्या हुई.
खुशी है कि महाराष्ट्र एटीएस निष्पक्ष जांच कर रही है और चरमपंथियों के खिलाफ सख्ती से कदम उठा रही है. लेकिन इसे यहीं रुकना नहीं चाहिए और गहराई में जाकर काम करना चाहिए.
ये पहले भी हुआ है जब एचडी देवगौड़ा पीएम बनें. कांग्रेस की स्थिति बेहतर थी पर वो गैर कांग्रेसी को पीएम बनाने पर मान गई. हम सबने मिलकर तय किया, नंबर कम होने के बावजूद पीएम बनाए गए.
राहुल गांधी के कई बयानों से ये साफ है कि वो सबको साथ लेकर देश को एक विकल्प देना चाहते हैं. एनडीए की सरकार रहेगी ऐसा नहीं होगा. 1977 में इंदिरा गांधी की स्थिति, 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की स्थिति याद करें. वाजपेयी की इमेज पाॅजिटिव थी. लेकिन लोगों ने सरकार बदली. मनमोहन सिंह ने नेतृत्व किया. आज वैसी ही स्थिति है.
किसान, इंडस्ट्री, महिलाओं के हालात खराब है. सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहे हैं. अल्पसंख्यकों की स्थिति इतनी खराब नहीं थी. हमारा साथ पाकर उनका विश्वास बढ़ रहा है.
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Published: 12 Aug 2018,08:15 PM IST