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3 साल से उमा, उनके पति रमेश और उनके बच्चों को कर्नाटक चिक्कबल्लापुर की ईंट भट्ठी में काम करने के लिए झोंक दिया गया. 2014 में बेंगलुरु के एक एनजीओ- इंटरनेशनल जस्टिस मिशन (IJM) की मदद से उन्हें बचाया गया. साथ ही पुलिस ने ईंट भट्ठी के मालिक को भी गिरफ्तार किया और उसपर बंधुआ मजदूरी कराने के आरोप लगे.
उमा और उसके पति ने मजबूरी के चलते ईंट भट्ठी के मालिक से 1,30,000 रुपये का कर्ज लिया था. मालिक ने कहा था कि वो ये कर्ज 6 महीने में चुका देंगे, लेकिन कुछ समय बाद जब वो कर्ज नहीं चुका पाए तो उमा और उसके परिवार को चिकबल्लापुर में 3 साल तक बंधुआ मजदूरी करनी पड़ी. हजार ईंट बनाने के बदले उन्हें 150 रुपये मिलते थे. हालात इतने बुरे हो चले थे कि घर का राशन लाने तक के पैसे नहीं बचते थे, कर्ज चुकाना तो बहुत बड़ी बात हो गई थी.
ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2018 के मुताबिक 2016 तक 80 लाख भारतीय बंधुआ मजदूरी में फंसे थे.
सूर्या और उसके कजिन को तमिलनाडु से तस्करी कर महाराष्ट्र लाया गया था, जहां उन्हें एक फैक्ट्री में काम करने के लिए मजबूर किया गया. तस्करों ने उनके मां-बाप को हजार रुपये एडवांस देकर कहा कि उसके नौकरी में लगने के बाद उन्हें और पैसे दिए जाएंगे.
सूर्या का कजिन विजय जब फैक्टरी छोड़कर वापस घर भाग आया तो उसने अपने परिवार को वहां मिलने वालीं यातनाएं बताईं. स्थिति हाथ से बाहर निकलते देख उनके पिता ने कोर्ट का रुख किया और 2017 में सूर्या को बचा लिया गया.
एंटी-ट्रैफिकिंग बिल अभी राज्यसभा में लंबित है, लेकिन क्या नया कानून इन पीड़ितों के पुनर्वास में मददगार साबित होगा? क्या पीड़ितों के लिए शेल्टर होम्स सुरक्षित हो सकता है? क्या वो खुद को दोबारा तस्करी के चंगुल में फंसने से बचा पाएंगे? क्या ये बिल पूरी समस्या को जड़ से सुलझा देगा?
हाल ही में बिहार के शेल्टर होम में यौन उत्पीड़न की घटना के बाद से उनपर भी सवाल उठने लगे हैं. इस घटना के बाद से पुनर्वास की समस्या को तुरंत हल करने की जरूरत है.
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