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बजट 2018 की सबसे बड़ी हेडलाइन की बात की जाए, तो वो है नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम यानी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना. इसके तहत सरकार ने देश के 50 करोड़ लोगों को 5 लाख रुपये का मेडिकल इंश्योरेंस देने की घोषणा की है. क्या सरकार के लिए ये वादा निभाना मुमकिन है? क्विंट बजट की सबसे बड़ी हेडलाइन से जुड़े इस सबसे बड़े सवाल को डीकोड कर रहा है.
हमारे देश में कुल 25 करोड़ परिवार हैं. इनमें से 10 करोड़ परिवारों को हर साल 5 लाख रुपये का मेडिकल इंश्योरेंस दिया जाएगा. यानी बीमार पड़ने पर 5 लाख रुपये तक का खर्चा सरकार उठाएगी. हालांकि बीमारी थोड़ी बड़ी होनी चाहिए.
पहला सवाल— इस स्कीम पर कितना पैसा खर्च होगा और क्या इसकी व्यवस्था कर दी गई है?
बजट पेपर्स से पता चलता है कि पिछले साल के मुकाबले हेल्थ पर बजट में 1,469 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई है. महज 1500 करोड़ की बढ़ोतरी में इतना बड़ा काम?
हर बीमा सुरक्षा की एक कीमत होती है.
कुछ न्यूज रिपोर्ट्स के मुताबिक, सरकारी सूत्रों का कहना है कि एक परिवार के लिए प्रीमियम का कॉस्ट होगा 1100 रुपये. इस हिसाब से सालाना खर्च हुआ 11,000 करोड़. लेकिन बजट में तो इसका भी जिक्र नहीं है. ये बात भी समझ में नहीं आती कि जिस प्रोडक्ट की मौजूदा कीमत 4000 से 5000 रुपये है, उसे सरकार 1100 रुपये में कैसे मुहैया कराएगी.
इस स्कीम से जिन 10 करोड़ परिवारों को फायदा होना है, उनका चुनाव कैसे होगा?
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में पौने सात करोड़ परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं... वही जिन्हें BPL कहा जाता है. कुछ राज्यों का तो ये हाल है कि वहां बीपीएल फैमिली का चुनाव ही ठीक से हो नहीं पाया है. तो फिर किस तरीके से बेनिफीशियरी का चुनाव होगा?
स्कीम पर होने वाला पूरा खर्च केंद्र सरकार देगी या फिर राज्य सरकारों का भी हिस्सा होगा?
क्या फायदा लेने वाले परिवार को भी प्रीमियम का थोड़ा हिस्सा देना होगा... हमें जवाब का इंतजार है.
पुरानी योजनाओं का क्या होगा?
2008 में एक स्कीम आई थी- राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना. इसके तहत गरीब परिवार को सालाना 30 हजार रुपये का मेडिकल इंश्योरेंस दिया जाता है. नामी मैगजीन Economic and Political Weekly यानी EPW के मुताबिक 2014-15 तक इस स्कीम से 3 करोड़ 30 लाख परिवार जुड़े थे.
EPW की रिपोर्ट के मुताबिक, इस स्कीम से परिवारों पर आर्थिक बोझ कम नहीं हुआ. वजह ये कि चंद खुशकिस्मत लोगों को हॉस्पिटल के खर्चे तो मिल जाते हैं, लेकिन टेस्ट और दवाई के पैसे अलग से देने होते हैं, जो उन्हें सरकार से नहीं मिलता. मतलब स्कीम को लागू करने में बड़ा लोचा है. इतने अनसुलझे पहलुओं के बावजूद स्कीम को गेमचेंजर बताया जा रहा है.
चुनावी साल में नेता तो बड़े-बड़े वादे करेंगे ही. वैसे बीमा तब मिलता है, जब कोई बीमार पड़ता है. और बीमार पड़ना ही क्यों? सुबह उठिए.. योगा करिए और काम पर चलिए.
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एडिटर- विवेक गुप्ता
कैमरा-अथर राठेर
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