इस बजट को मैं कुछ कैच वर्ड के जरिये समझने की कोशिश कर रहा था. मुझे लगता है कि ये बजट नर्वसनेस के साथ बनाया गया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली लोकसभा में हिंदी और अंग्रेजी, दोनों में बोले. उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस पर लंबा भाषण दिया. करीब-करीब मास्टर क्लास के तौर पर कि इसमें गरीबों, दलितों, शोषितों, वंचितों, पिछड़ों, गांववालों को क्या फायदे मिलने जा रहे हैं.
बजट के बहाने वोट का ग्रोथ!
ये नर्वसनेस कहां से आ रही है? गरीबों का वोट लेने की तमाम कोशिशों के बावजूद गुजरात चुनाव ने बताया कि गांव-गरीब में बीजेपी की स्थिति अच्छी नहीं है. इसलिए जरूरी है कि गरीबों को ठीक से अपनी तरफ बटोरा जाए. यानी गांव, गरीब, किसान और ग्रोथ का बजट चाहिए, तभी तो वोट का ग्रोथ मिलेगा. तो सारा फोकस किसान और गरीब पर था.
गरीब पर तो उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी स्कीम लेकर आ रहे हैं, जिसमें 10 करोड़ परिवारों को 5 लाख रुपये का हेल्थ बीमा मिलेगा. हेल्थ और इंश्योरेंस सेक्टर के लिए बहुत बड़ी खबर है. लेकिन बीमा लगता है कि सबको मिलेगा, लेकिन सबको मिलता नहीं है. बहुत कम पैसे में बहुत बड़ा काम होता है, लोगों को अच्छा लगता है, फीलगुड दिया जा सकता है.
किसानों की ओर फेंका ‘चारा’
किसान जो दूसरी सबसे बड़ी नाराज आबादी है, उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लागत के 50% तक बढ़ाने का फैसला किया है. इसका फाइनप्रिंट अभी देखना पड़ेगा, लेकिन किसान इस सरकार के लिए दूसरा सबसे बड़ा सिरदर्द है.
MSP पहले इसलिए नहीं बढ़ाते थे, क्योंकि इससे महंगाई बढ़ती है, जिससे ब्याज दरें बढ़ती हैं और ग्रोथ पर उसका असर पड़ता है. अब अगर आप किसान को 50% का फायदा देंगे तो कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स का क्या होगा. उपभोक्ता के लिए महंगाई बढ़ेगी तो शहरी और मध्यम वर्ग का आपका वोटर इसे कैसे देखेगा?
दूसरी बात ये कि सरकार सारा काम अपने खजाने से करना चाहती है. यानी निजी निवेश को बढ़ावा देने का कोई नया या बड़ा काम बजट में नहीं है.
टैक्स की राहत पर सेस की चपत
टैक्स के मामले में लगता है कि मध्यम वर्ग को थोड़ी राहत मिली है, लेकिन 1% का नया सेस आ गया है. यानी अब स्वास्थ और शिक्षा पर 3% के बजाए 4% का सेस देना होगा. निवेशकों और बाजार के लिए बुरी खबर ये है कि लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन (LTCG) टैक्स लगा दिया गया है.
सरकार का तर्क ये है कि करीब 3.75 लाख करोड़ रुपये बिना टैक्स के पड़े हैं और उन पर 10% का मामूली टैक्स लगाया जा रहा है. इसी तरीके से कॉरपोरेट टैक्स में ढाई सौ करोड़ के टर्नओवर वालों के लिए टैक्स की दर 25% घटाई गई है, लेकिन कुल मिलाकर शायद ज्यादा ही टैक्स लगेगा.
कैसे निभेगा वित्तीय अनुशासन?
तीसरी बात ये कि लोग फिस्कल डेफिसिट (वित्तीय घाटे) के नंबर पर नजर रखते हैं. 3% का वादा था, अब 3.3% का टारगेट अपने लिए रख रहे हैं. पिछला टारगेट भी .2% से टूटा था. तो इस पर लोगों की नजर रहेगी कि क्या आप वित्तीय अनुशासन निभा पाएंगे.
महंगाई और वित्तीय घाटे के नंबर के अलावा एक और जोखिम है, तेल की कीमतें. हालांकि वो किसी के हाथ में नहीं है, लेकिन अगर तेल के दाम ज्यादा बढ़ते हैं, तो बजट का सारा गणित बिगड़ सकता है.
इस बजट को पड़कर ऐसा भी लगता है कि दरअसल सरकार को एक तरह की तसल्ली है, क्योंकि ग्लोबल इकनॉमी बेहतरी की तरफ बढ़ रही है और भारत की अर्थव्यवस्था की रफ्तार चूंकि ठीक-ठाक है, तो न कोई नकारात्मक झटका दिया जाए, न कोई बड़ा सकारात्मक साहसी काम किया जाए, तो भी अर्थव्यवस्था ठीक-ठीक रफ्तार से चलती रहेगी. ये राजनीतिक तौर पर सरकार को सूट करता है कि यहां नोटबंदी जैसा कोई रोमांचक काम करने की जरूरत नहीं है.
कुल मिलाकर ये कि गांव और गरीब के लिए बहुत कुछ है, वो खुश हो सकते हैं. बिजनेस के लिए टैक्स की मार बढ़ी है, मिडिल क्लास को बजट में कोई राहत नहीं मिली है, शेयर बाजार के निवेशकों के लिए इसमें अच्छी खबर नहीं है.
तो सारा फोकस ये कि अलग-अलग तरह के वोटरों से कैसे कहें कि आपका वोट हमें मिलना चाहिए. यानी बहुत सारा डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर इसलिए किया जाएगा, ताकि बहुत सारा वोट ट्रांसफर हो सके. लोग समय से पहले लोकसभा चुनावों की अटकल लगा रहे हैं. जिस तरह की आक्रामक घोषणाएं की गई हैं, उनसे समय के बारे में अंदाजा तो नहीं लगाया जा सकता, लेकिन ये बजट पक्के तौर पर चुनावी बिगुल बजाने वाला है.
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