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औरंगाबाद हादसा:मरने वाले 16 मजदूरों को सिस्टम पहले ही भुला चुका था

औरंगाबाद हादसे पर कुछ लोगों ने मजदूरों पर सवाल उठाए तो किसी ने इसे साजिश करार दिया

रोहित खन्ना
न्यूज वीडियो
Published:
औरंगाबाद हादसा:मरने वाले 16 मजदूरों को सिस्टम पहले ही भुला चुका था
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औरंगाबाद हादसा:मरने वाले 16 मजदूरों को सिस्टम पहले ही भुला चुका था
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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8 मई की सुबह कुछ प्रवासी मजदूर ऐसे ही रेल की पटरी पर सोए हुए थे. एक मालगाड़ी उनके ऊपर से निकल गई. 16 मजदूर मारे गए. आप इस खबर को जानते ही हैं. मैंने सोचा, देखते हैं ये जो इंडिया है न, इस ट्रेजडी पर कैसा रिएक्ट कर रहा है.

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रश्मि ने लिखा- जिंदगी पटरी पर वापस आने से पहले मौत पटरी पर आ गई.

@MohdZub75592824 ने कहा- काश हमारे ऊपर से गुजरने से पहले.. हम पर क्या गुजर रही है वो देख लेते..

@Jais_vish ने कहा- वो थक के क्या सोया... सोता ही रह गया

@vaibhavadurkar कहते हैं- आज मजदूर नहीं मजबूर मारा गया है..

उनकी मजबूरी क्या थी, हम जानते हैं, 40 दिनों तक न ट्रेन न बस. और जब शुरू की तो बहुत कम. छोटे शहरों में, जैसे की जालना, महाराष्ट्र, जहां से ये ग्रुप चले थे, मजदूरों को कोई आईडिया नहीं था की ट्रेन मिल सकती है. तो ये 150 किलोमीटर की दूरी पर भुसावल की ओर चल पड़े थे. भुसावल, एक बड़ा रेल जंक्शनल जो मध्य प्रदेश बॉडर्र के पास है. ये 45 किलोमीटर पैदल चल चके थे. क्या आपने कभी 45 किलोमीटर चल के देखा है? बिलकुल थक कर... वो सो गए... और फिर..आई ट्रेन.. उन्हें कुचल कर चली गई.

लेकिन इस हादसे के बारे में हमारे कुछ देशवासियों की सोच अलग है.

रमेश किसानी ने लिखा- हर नागरिक जानता है रेल की पटरी पर चलना खतरनाक है और अपराध भी, ट्रेन पटरी से नहीं उतरी.. लोग पटरी पर चढ़े थे..

@vampire2298 सीधे कहते हैं- दिमागी गरीबी का क्या किया जाए?

@shailkothari- बीमारू राज्यों के मजदूर की संख्या कुछ ज्यादा ही है. न वो सफाई और स्वच्छता का खयाल रखते हैं.. न ही उनमें डिसिप्लिन है.

संतोष मलिक कहते हैं- मरने दो उन्हें..धरती के बोझ!

दिमाग से गरीब.. धरती पर बोझ..और कहने के लिये बचा ही क्या है?

लेकिन सभी की सोच ऐसी नहीं है..

अशरफ अहमद (@afsara1) ने एक कविता लिखी दी- जिसके सपनों के महल तू हकिकत में बदलता था, उन्हें तू अब याद नहीं.

देश की आवाज ने लिखा- ट्रेन के ड्राइवर को क्या कहा जाए..उसके पास तो चंद सेकेंड ही थे, मजदूरों को देखने के लिये. सरकार के पास तो 50 दिन थे, फिर भी न बचा पाई.

उड़ता बिहार कहते हैं- कोरोना से बच गए, सिस्टम ने मार दिया..

सिस्टम ने मार दिया. जब बिल्डर लॉबी के कहने पर कर्नाटक के सीएम ट्रेन रोक देते हैं. तो समझ लीजिए मजदूर सिस्टम से हार गया. जब ओडिशा हाईकोर्ट कहती है कि हर प्रवासी मजदूर का कोरोना टेस्ट होना चाहिए. जो सब जानते हैं नामुमकिन है, इसे कहते हैं सिस्टम से मारा जाना. नीतीश कुमार का कहना है कि, बिहार के मजदूर वापस घर न लौटें. ये है सिस्टम का मजदूर से मुंह फेर लेना. उन 16 मजदूरों में से एक की पत्नी कह भी चुकी है- 5 लाख रुपये मुआवजा का क्या करेंगे? इससे कम पैसे में तो मेरे पति ही जिंदा घर लौट आते.

लेकिन सिस्टम के कई समर्थक भी हैं. कुछ ही घंटों में इसे हादसा को तो कोई साजिश कह रहा था.. तो कोई संप्रदायिक रंग दे रहा था..

विकास अग्रवाल ने लिखा- एक भी मजदूर न ट्रेन की आवाज से, न पटरी की वाइब्रेशन से उठा? क्या ऐसा हो सकता है.. जांच होनी चाहिए.

पारितोष आर्य ने पूछा- रेलवे ट्रैक पर सोता कौन है भाई.. बात अजीब है.

अर्बन हरमीत एमजी का सवाल- क्या ये आत्महत्या तो नहीं?

भूदेव शर्मा पूछते हैं- क्या इन्हें मार कर, फिर पटरी पर फेंका गया था?

@Deepakpatriotic याद दिलाते हैं- औरंगाबाद डिस्ट्रिक में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है..

Love all कहते हैं- महाराष्ट्र में औरंगजेब-वाद बढ़ रहा है.

आपके लिए यहां कुछ कमेंट ही हैं लेकिन ऐसी साजिश की थ्योरी को पालने वाले और भी कई नागरिक हैं. जब टीवी चैनल के बड़े-बड़े एंकर जिहाद फ्लो चाट.. फिल्मी जिहाद.. मीडिया जिहाद.. जैसे आइडिया का प्रचार करते हैं, तो आम आदमी से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं? अच्छी बात ये हैं, की सभी की सोच ऐसी नहीं है.

@bhaskaroop कहते हैं- खुद 45 किलोमीटर चल कर देखो तो असली थकान का मतलब समझ में आएगा. ऐसे हालत में न ट्रेन की सीटी सुनाई देती है.. न वाइब्रेशन महसूस होता है

प्रतीक अग्रवाल कहते हैं- रेल की पटरी पर क्यों चल रहे थे. इस सवाल की जगह ये पूछिए कि वो पैदल चलने पर मजबूर क्यों थे?

आखिर में, पटरी पर बिखरी रोटियां...हादसे की इस तस्वीर के बारे में कई लोगों ने लिखा है.

@srq_official ने कहा- ये रोटियां उठा कर पीएम तक पहुंचा दो. जिन थालियों में मजदूर ये रोटियां खाते थे, उन थालियों को उन्होंने पीएम के लिए बजाया भी था..

@SapanKayCee ने लिखा- इन सूखी रोटियों के सहारे.. पटरियों के बीच, मजदूर सफर पर तो निकले थे, लेकिन मंजिल मिली नहीं..

ये जो इंडिया है न.. यहां की रेल की पटरियां.. लोगों को अपने घर पहुंचाते हैं.. उनकी मौत का कारण नहीं बनते.

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