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इलेक्टोरल बॉन्ड्स (Electoral Bonds) हमारे लिए मायने क्यों रखते हैं? क्योंकि आज 60% पॉलिटिकल फंडिंग इलेक्टोरल बॉन्ड्स के जरिए हो रही है. 2017 से 2022 तक, राजनीतिक पार्टियों को 9200 करोड़ रुपये मिले. इसमें से अकेले बीजेपी को 5300 करोड़ रुपये मिले.
क्या आम नागरिक को ये जानने का हक है कि हमारे नेताओं को इतना सारा पैसा कौन दे रहा है? बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि देश की जनता को ये जानने की न तो जरूरत है न अधिकार. बदले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में पारदर्शिता की कमी है और इसमें नेता और बॉन्ड खरीदने वालों के बीच गलत सांठ-गांठ मुमकिन है.
बीजेपी ने ये भी कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड चुनावों में काले धन को रोकते हैं, क्योंकि दान करने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है. लेकिन ये सच नहीं है. 2018 में क्विंट ने बताया था कि हर इलेक्टोरल बॉन्ड पर एक गुप्त विशेष नंबर होता है, जो सिर्फ अल्ट्रा वॉयलेट लाइट में पढ़ा जाता है. और इस नंबर के जरिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और सरकार चंदा देने वाले की पहचान कर सकते हैं.
अब अगर बैंक, सरकार और बीजेपी जानती है कि कौन इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद रहा है तो देश का मतदाता क्यों नहीं जान सकता?
पारदर्शिता नहीं तो लोकतंत्र नहीं!
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (ADR) के आंकड़ों के अनुसार, 2016-17 से 2021-22 के बीच भारत में 24 क्षेत्रिय दलों और 7 राष्ट्रीय दलों को 16,437 करोड़ रुपये मिले. इसमें से आधे से भी ज्यादा, 9,188 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिले थे.
इसक जरिए कांग्रेस को 952 करोड़, टीएमसी को 768 करोड़ रुपये, बीजेडी को 622 करोड़ रुपये और डीएमके को 431 करोड़ रुपये मिले हैं.
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