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वीडियो एडिटर- पूर्णेन्दु प्रीतम
सरकार ने देश के कुछ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट को Institute of Eminence का दर्जा दिया है, उसमें कई दिक्कतें हैं. कहां से शुरू करें. सिर्फ जियो इंस्टीट्यूट को Institute of Eminence देने का ही सवाल नहीं है. सरकार की ओर से इस तरह का दर्जा देने का पूरा प्रोसेस ही खामियों से भरा है. इस तरह के फैसलों में सुराख साफ दिखते हैं.
इस सिलसिले में फैसले लेने वाली एचआरडी मिनिस्ट्री और एम्पावर्ड एक्सपर्ट कमेटी से मेरे कुछ सवाल हैं.
एचआरडी और एम्पावर्ड एक्सपर्ट कमेटी ने 113 योग्य इंस्टीट्यूट में से सिर्फ 6 इंस्टीट्यूट को चुना बगैर किसी फील्ड विजिट और टेब्यूलर रैंकिंग के. आखिर क्यों? Institute of Eminence टैग के मामले के बारे में जो यूजीसी गाइडलाइंस हैं वे साफ कहती हैं सभी इंस्टीट्यूट और उनकी रैंकिंग का आकलन होना चाहिए. लेकन कमेटी ने सोचा, छोड़ो यार कौन करता है रैंकिंग का अप्रेजल?असल में उन्होंने कहा, “हम institute की ranking नहीं करते क्योंकि हमारा मानना है कि ऐसा करना सही नहीं होगा.”
सरकार कह रही है रैंकिंग करना सही नहीं होगा. लेकिन साहब, अगर इस मामले में कुछ सही नहीं है तो वो है रैंकिंग सिस्टम का न होना. जबकि इस बारे में कमेटी को जो निर्देश है उसमें इसे अनिवार्य करार दिया गया है.
एक्सपर्ट कमेटी ने इस टैग के लिए अप्लाई करने वाले एक भी इंस्टीट्यूट का दौरा नहीं किया. पूछिये क्यों? आप मानें या न मानें लेकिन इस बारे में उनका जवाब सुन लीजिये. अगर हम 113 इंस्टीट्यूट का फील्ड विजिट करने लगें तो इसमें एक साल लग जाएगा.
तो क्या हुआ?
यह लॉन्ग टर्म प्रोजेक्ट है और इसमें एक दशक भी लग सकता है, समझे? फील्ड विजिट में बिताए कुछ महीने एमिनेंस टैग देने के प्रोसेस को कैसे चोट पहुंचा सकते थे? एमिनेंस टैग देने का मकसद ही यह है कि इंस्टीट्यूट 10 साल में टॉप ग्लोबल 500 रैंकिंग में आ सके. यानी 2028 तक इस रैंकिंग में जगह बना ले. अगर फील्ड विजिट में डेढ़ महीने की तुलना में एक साल भी लगाया जाता तो डेडलाइन एक ही साल यानी 2029 तक ही बढ़ती.
एक ऐसा इंस्टीट्यूट जो अभी खड़ा नहीं हुआ है उसे इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस बनना है तो यूजीसी का रूल है कि इसे स्पॉन्सर करने वाले संगठन में ऐसे सदस्य हों जिनकी कुल नेटवर्थ 5000 करोड़ रुपये हो.
आखिर इतनी बड़ी रकम क्यों?
2014 में अशोका यूनिवर्सिटी को स्पॉन्सर करने वाले संगठन के सदस्यों ने 145 करोड़ ही जुटाए थे. इसलिए साफ है कि 5000 करोड़ रुपये की सीमा हाई एंट्री बैरियर के तौर पर खड़ी की गई है.
जो इंस्टीट्यूट अभी बना नहीं है उसे ग्रीनफील्ड कैटगरी में अप्लाई करना था और 1 करोड़ रुपये की एप्लिकेशन फीस देनी थी ताकि एमिनेंस टैग की चयन प्रक्रिया के योग्य बन सके. लेकिन कमेटी के पास न तो एप्लिकेंट्स की टेब्यूलर रैंकिंग के लिए वक्त था और न उसमें ऐसा कोई रुझान दिखा. वास्तव में जियो इंस्टीट्यूट ने एक करोड़ की फीस दी थी वह सिर्फ इसलिए कि कमेटी के सामने प्रजेंटेशन दे सकें.
कमेटी की कोशिशों की तुलना में एप्लिकेशन फीस बहुत ज्यादा नहीं लगती?
जियो इंस्टीट्यूट की टीम के अंदर हितों के संघर्ष यानी conflict of interest की आशंका हो सकती थी लेकिन इसकी पड़ताल नहीं की गई. विनय शील ओबेरॉय नाम का यह शख्स उस आठ सदस्यीय जियो टीम का हिस्सा है जिसने Empowered Expert Committee के सामने प्रजेंटेशन दी.
अगर यह conflict of interest का सीधा मामला नहीं है तो आखिर है क्या?
आखिर उस जियो इंस्टीट्यूट को IIT बॉम्बे और IIT दिल्ली की तरह ही इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस का दर्जा क्यों दिया जाए, जो अभी अस्तित्व में ही नहीं है. सही है कि यह अभी ‘लेटर ऑफ इंटेंट’ तक ही सीमित है लेकिन तीन साल के बाद भी दोनों बराबर कैसे हो पाएंगे.
एक तरफ तो ये तीन IIT हैं. जिनका दशकों का परखा हुआ एकेडेमिक एक्सलेंस हैं. दूसरी ओर मुकेश अंबानी का प्रजेंटेशन है जिसमें कहा गया है कि जियो इंस्टीट्यूट शानदार एजुकेशन 'देगा'. और फिर आईआईटी और जियो इंस्टीट्यूट पढ़ाई की क्वालिटी के मामले में एक हो जाएंगे.
डियर एचआरडी मिनिस्टर, आपको कहीं से यह बात तार्किक लगती है. क्या आपको ये सही लगती है.
इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस टैग मिलने के बाद अभी अस्तित्व में नहीं आए जियो इंस्टीट्यूट को इतनी स्वायत्तता मिल गई है कि वह यूजीसी के मौजूदा नियमों और निगरानी के दायरे से भी ऊपर चला जाएगा.
सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई और माउंट कारमेल कॉलेज बेंगलुरू को स्वायत्त कॉलेज बनने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी. लेकिन रिलायंस फाउंडेशन के सिर्फ एक प्रजेंटेशन ने यह कारनामा कर दिखाया.
और जब देश में हायर एजुकेशन के इतने अच्छे इंस्टीट्यूट हैं तो उन्हें क्यों न सुधारा जाएगा. जो इंस्टीट्यूट अभी बना नहीं उसे इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस का दर्जा क्यों दिया जाए.
आखिर यूजीसी के निर्देशों और सुझावों का उल्लंघन करने वाली खामियों से भरा एक प्रोसेस, जिसमें हितों के टकराव की आशंका है, उसे केंद्र सरकार क्यों लागू करना चाहती है. ऐसा प्रोसेस जिसका कोई मतलब नहीं है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय और इसकी एक्सपर्ट कमेटी को अभी कई सवालों के जवाब देने हैं. और हम ये सवाल करना नहीं छोड़ेंगे.
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