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मजदूर दिवस: ‘हमारे लिए क्या जिंदगी और क्या मौत सब बराबर है’

कोलकाता की नमिता बैरागी और उसका परिवार चावल और पानी खा रहे हैं और बच्चे को भी यही खिला रही हैं.

त्रिदीप के मंडल
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(फोटो: क्विंट)
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24 मार्च से लॉकडाउन के बाद देश भर में मजदूरों का महापलायन देखने को मिला है. अलग-अलग शहरों से कितने लोगों ने पलायन किया, इसका कोई आंकड़ा अभी मौजूद नहीं है. लेकिन मदद के लिए मजदूरों की गुहार जरूर मौजूद है.

लॉकडाउन शुरू होने के बाद से कोलकाता की नमिता बैरागी और उसका परिवार चावल और पानी खा रहे हैं और बच्चे को भी यही खिला रही हैं. नमिता कहती है, "हम सिर्फ पानी और चावल खा रहे हैं और हम ये कैमरे के लिए नहीं कर रहे हैं. हम हर रोज यही खा रहे हैं. और कुछ भी नहीं है."

वो कहती हैं कि मेरा बेटा नहीं खाना चाहता है तो उसे जबरदस्ती यही खिलाता पड़ता है. कल मेरा बेटा चिप्स के लिए रो रहा था, मेरे पास 5 रुपये थे, लेकिन मैं नहीं दे पाई. कल इसी 5 रुपये से मैं खाना खरीदूंगी.
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नमिता के पति मानिक बैरागी ड्राइवर हैं. उनके पति कहते हैं, "हमारे लिए जिंदगी और मौत का फर्क खत्म हो गया है. मैं रोज 300-350 रुपये कमाता था. अब कुछ नहीं. हमारी हालत वाकई में खराब है. मेरे पास अपने बेटे के लिए दूध या पत्नी के लिए दवा खरीदने के लिए भी पैसा नहीं है."

मानिक कहते हैं, "मुझे नहीं पता हम कैसे बचेंगे."

पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (जुलाई 2017- जून 2018) के मुताबिक, भारत में करीब 41 करोड़ दिहाड़ी मजदूर हैं. वहीं अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन मॉनिटर की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में 40 करोड़ मजदूर और गरीबी में धकेले जाएंगे.

कोलकाता से दूर हजारों किलोमीटर दूर दिल्ली में कहानी एक जैसी ही है. बेरोजगारी, भूख और दर्द से मजदूर कराह रहे हैं. 25 साल से प्रेम सिंह दिल्ली के खारी बावली में दिहाड़ी मजदूरी कर रहे थे, अब उनके पास कुछ भी नहीं है.

प्रेम सिंह कहते हैं, "मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूं. ऐसी नौबत कभी नहीं आई थी. मेरे पास कुछ नहीं है, न खाना है और न पैसा. जब बड़े लोग खाना बांटते हैं तो वहां जाकर खा लेता हूं."

प्रेम सिंह कहते हैं कि लॉकडाउन जरूरी है लेकिन इतनी कड़ाई भी ठीक नहीं है. वे कहते हैं, "हम जहां भी जाते हैं, पुलिस वाले लाठी मार रहे हैं. अगर दिल्ली में हमारा घर होता, तो हम भी घर में रहते. हमारा घर नहीं है, इसलिए फुटपाथ पर सोना पड़ता है."

केंद्र सरकार के जनधन खाते के बारे में वे कहते हैं कि उसमें पैसे ही नहीं आते, तो ऐसे खाते का क्या फायदा? किसकी गलती है वो नहीं पता. लेकिन आजतक हमें कोई पैसा नहीं मिला.

वहीं 20 साल से पुरानी दिल्ली स्टेशन के पास रिक्शा चलाने वाले अखिलेश कहते हैं कि देश पर संकट है, सरकार को अपने स्तर से निपटना चाहिए. लेकिन सरकार को गरीब वर्गों का भी कुछ ख्याल रखना चाहिए.

एक और मजदूर कहता है, "जो सड़क पर भटक रहा है, उसके लिए सरकार को सोचना चाहिए कि उनके लिए क्या कर रहे हैं."

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