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क्राइम-राजनीति का रिश्ता टूटना चाहिए, पर बढ़ते मनी पावर का क्या?

2014 के चुनाव में 100 में से सिर्फ दो ऐसे उम्मीदवारों की जीत हुई जो करोड़पति नहीं थे.

मयंक मिश्रा
न्यूज वीडियो
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क्राइम-राजनीति का रिश्ता टूटना चाहिए, पर बढ़ते मनी पावर का क्या?
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क्राइम-राजनीति का रिश्ता टूटना चाहिए, पर बढ़ते मनी पावर का क्या?
(फोटो: कनिष्क दांगी/क्विंट हिंदी) 

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सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है. राजनीति का अपराधीकरण कम होना ही चाहिए. गुड न्यूज ये है कि मामूली ही सही, इसकी शुरुआत हो चुकी है. कम से कम आंकड़े तो यही बताते हैं. दरअसल, हो ये रहा है कि साफ सुथरी छवि वालों की तुलना में दागी उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की संभावना अब भी ज्यादा है. लेकिन बड़े मनी बैग वालों के जीतने की संभावना इन सबसे कई गुना ज्यादा है. आइए एक नजर आंकड़ों पर डालते हैं.

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2014 के लोकसभा चुनाव में साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों के जीतने की संभावना 5% थी, दागियों के जीतने की संभावना 13% और करोड़पतियों की 20%.

एक और आंकड़ा देखिए-

2014 के चुनाव में 100 में से सिर्फ 2 ऐसे उम्मीदवारों की जीत हुई जो करोड़पति नहीं थे. लेकिन करोड़पतियों के लिए ये आंकड़ा 100 में से 20 का था. मतलब ये कि धनवानों के जीतने की संभावना आम उम्मीदवारों की तुलना में 10 गुना ज्यादा है.

तब से हर चुनाव में हमने देखा कि मनी पावर का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है. लोकसभा चुनाव के बाद हुए 8 विधानसभा चुनावों का मैंने विश्लेषण किया था. मैंने पाया कि उन 8 में से 4 चुनावों में दागी उम्मीदवारों की संख्या में कमी आई, लेकिन हर राज्य में करोड़पति उम्मीदवारों की संख्या पिछले चुनाव की तुलना में काफी ज्यादा बढ़ी है और ये बढ़ोतरी 12% से लेकर 300% तक की थी.  इसका मतलब है कि पार्टियों के लिए जीत का नया फॉर्मूला मसल पावर कम, लेकिन मनी पावर ज्यादा होता जा रहा है.

ऐसा क्यों हो रहा है?

सबसे पहला, चुनाव खर्चीले हो रहे हैं. वोटरों की संख्या बढ़ी है और इसी वजह से वोटरों से संवाद स्थापित करना महंगा हो गया है. इलेक्शन मैनेजमेंट जो पहले इनफॉर्मल तरीके से होता था अब वो अब बड़ा बिजनेस हो गया है. कंसलटेंसी फर्म खुल गए हैं. और सबका एक कॉस्ट है. कुछ मामलों में बहुत ही ज्यादा.

जरा सोचिए, बड़ी रैलियों, रोड शो, सोशल मीडिया कैंपेन, बुथ मैनेंजमेंट, रेडियो-टेलीवीजन में एड कैंपेन. इन सबमें करोड़ों खर्च होतें हैं. कुछ का हिसाब होता है लेकिन बड़ा हिस्सा तो ब्लैक मनी ही है.

चूंकि बंपर प्रॉफिट ऑन इनवेस्टमेंट की गारंटी है इसीलिए नेता जीतने के लिए किसी भी हद तक जाते हैं. जीत गए तो बड़ी लॉटरी, एक चुनाव ही नहीं कई चुनावों के बराबर फंड का इक्ट्ठे इंतजाम हो जाता है. इसीलिए सबकुछ झोंक दिया जाता है.

क्राइम-पॉलिटिक्स के नेक्सस से ज्यादा खतरनाक है बढ़ता मनी पावर

चुनाव में मनी पावर के बढ़ने का मतलब है क्रोनी कैपिटलिज्म का बढ़ना. क्रोनी कैपिटलिज्म को आसान शब्दों में कहें तो ये है सरकार में बैठी पार्टी के चहेतों को बड़े ठेके, लेकिन बाकी को कुछ नहीं. चुनाव में मनी पावर के बढ़ने का मतलब है करप्शन का बढ़ना.

तो आप सबसे गुजारिश है कि चुनाव में चकाचौंध पर मतलब जाइए. बस इतना याद रखिए कि चकाचौंध में लगा पैसा किसी की जेब से निकला हो सकता है, किसी करप्शन का हो सकता है. और ये भी क्राइम ही है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 27 Sep 2018,12:03 PM IST

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