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देश में मीडिया रेग्युलेशन का ढांचा, क्या व्यवस्था, कहां खामी?

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए मीडिया रेग्युलेशन क्यों एक अहम मुद्दा है?

अक्षय प्रताप सिंह
न्यूज वीडियो
Published:
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए मीडिया रेग्युलेशन क्यों एक अहम मुद्दा है?
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भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए मीडिया रेग्युलेशन क्यों एक अहम मुद्दा है?
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: राहुल सांपुई

मीडिया रेग्युलेशन यानी मीडिया का नियमन. ये टर्म आपने कई बार सुनी होगी, लेकिन इसके मायने क्या हैं? भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए मीडिया रेग्युलेशन क्यों एक अहम मुद्दा है? सही तरह से मीडिया रेग्युलेशन हो तो उसका आपकी जिंदगी पर क्या असर पड़ सकता है?

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भारत में आम नागरिक से लेकर मीडिया तक के लिए एक अधिकार काफी मायने रखता है- अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार. हालांकि इसकी कुछ तय सीमाएं भी हैं. इसके बावजूद, पिछले कुछ वक्त से मीडिया का एक हिस्सा इस अधिकार का दुरुपयोग कर रहा है.

मामले की गंभीरता को समझना है तो अक्टूबर 2020 में की गई सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी पर ध्यान दीजिए, जिसमें कोर्ट कहता है- ‘’हाल के दिनों में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ है.’’

कोर्ट ने जमीयत उलेमा ए हिंद और अन्य की याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ये तल्ख टिप्पणी की. इन याचिकाओं में आरोप लगाया गया था कि COVID-19 के दौरान हुए तबलीगी जमात के कार्यक्रम पर मीडिया का एक वर्ग सांप्रदायिक विद्वेष फैला रहा था.

इतना ही नहीं, सुशांत सिंह राजपूत केस सहित कई मामलों में मीडिया के एक वर्ग ने, खासकर कई न्यूज चैनलों ने अपनी सीमाएं लांघीं, जिससे ये सवाल मजबूती से उठा कि क्या भारत में मीडिया पर कोई लगाम नहीं है?

यहां ये भी ध्यान में रखना चाहिए कि न्यूज चैनलों पर लगाम कसने के लिए चल रही बहस के बीच सूचना और प्रसारण मंत्रालय एडवाइजरी जारी कर कह चुका है कि टीवी चैनल केबल टेलीविजन नेटवर्क (नियमन) अधिनियम, के तहत कार्यक्रम और विज्ञापन संहिताओं और उनके तहत बनाए गए नियमों का कड़ाई से पालन करें.

वो कह चुका है कि किसी कार्यक्रम में कुछ भी अश्लील, मानहानिजनक, झूठ और आधी सत्य बातें नहीं होनी चाहिए. 

लेकिन महज ऐसी एडवाइजरी जारी करने से मामले का हल नहीं निकलता दिख रहा. अगर निकल रहा होता तो कोर्ट इतनी सख्त टिप्पणी नहीं करता.

हल निकलेगा, एक ऐसी रेग्युलेशन बॉडी के होने से, जिसकी नजर लगातार टीवी चैनलों के कॉन्टेंट पर हो, जो जरूरत पड़ने पर टीवी चैनलों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर सके. मगर सबसे जरूरी है कि इस रेग्युलेशन बॉडी पर सरकार का शिकंजा न हो. ये कैसे हो सकता है, इस पर बात करेंगे, लेकिन उससे पहले बात करते हैं कि भारत में अभी मीडिया रेग्युलेशन की कौन सी व्यवस्थाएं मौजूद हैं.

भारत में मीडिया रेग्युलेशन के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो एक नाम प्रमुखता से सामने है- प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, जो प्रेस काउंसिल एक्ट 1978 के तहत काम करती है. ये एक सांविधिक (statutory), अर्ध-न्यायिक अथॉरिटी है जो, प्रेस के लिए और प्रेस की ओर से प्रेस के एक वॉचडॉग (प्रहरी) की तरह काम करती है. ये क्रमशः एथिक्स और प्रेस की आजादी के उल्लंघन के लिए, प्रेस के खिलाफ और प्रेस की ओर से दर्ज शिकायतों के न्याय-निर्णय करती है. मगर PCI के पास दिशा निर्देशों को लागू करने की सीमित शक्तियां होती हैं, और ये केवल प्रिंट मीडिया के कामकाज की ही निगरानी करती है.

जब न्यूज चैनलों के लिए PCI जैसी कोई बॉडी नहीं है, तो सवाल उठता है कि उनके रेग्युलेशन के लिए क्या कोई बॉडी है भी? जवाब है हां- भारत में अभी न्यूज चैनलों के पास सेल्फ रेग्युलेशन यानी आत्म नियमन के मॉडल पर आधारित रेग्युलेशन बॉडी हैं. इनमें न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन यानी NBA प्रमुख है. खुद केंद्र दलील दे चुका है कि सुप्रीम कोर्ट ने NBA की भूमिका को टीवी चैनलों के नियामक के तौर पर स्वीकार किया था.

NBA की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक, ‘’यह संगठन प्राइवेट टेलीविजन न्यूज और करंट अफेयर्स ब्रॉडकास्टर्स का प्रतिनिधित्व करता है. यह भारत में न्यूज और करंट अफेयर्स ब्रॉडकास्टर्स की सामूहिक आवाज है. इसकी फंडिंग इसके सदस्य करते हैं.’’

NBA ने टेलीविजन कॉन्टेंट को रेग्युलेट करने के लिए एक आचार संहिता तैयार की है. NBA की न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी यानी NBSA को आचार संहिता के उल्लंघन पर चेतावनी देने, निंदा करने, भर्त्सना करने, अस्वीकृति जाहिर करने और ब्रॉडकास्टर पर 1 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का अधिकार है. ये चैनलों से प्राइम टाइम पर माफी मांगने को भी कह सकता है.

मगर इस मॉडल में सबसे बड़ी समस्या है कि इसका कार्यक्षेत्र सिर्फ उन ब्रॉडकास्टर्स तक ही सीमित है, जो NBA के सदस्य हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यूज ब्रॉडकास्टर्स के सामने NBA या उस जैसी किसी बॉडी का सदस्य बनने की कानूनी बाध्यता नहीं है. ऐसे में अगर कोई चैनल किसी सेल्फ रेग्युलेशन बॉडी का हिस्सा है भी और वो उस बॉडी के किसी फैसले से सहमत नहीं होता, तो उसके पास बाहर निकलने का विकल्प हमेशा होता है. इसलिए जरूरी है कि किसी सेल्फ रेग्युलेशन बॉडी को कोई कानूनी आधार मिले.

भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस के एक आर्टिकल में ऐसे ही एक मॉडल का उदाहरण देते हैं. उन्होंने लिखा है, यूके OfCom यानी ऑफिस ऑफ कम्युनिकेशन्स के रूप में एक अच्छा उदाहरण देता है.

OfCom ब्रॉडकास्टिंग, टेलीकम्युनिकेशन और पोस्टल इंडस्ट्रीज के लिए गवर्नमेंट-अप्रूव्ड रेग्युलेटरी और कॉम्पिटीशन अथॉरिटी है. NBA की तरह OfCom इंडस्ट्री की फीस पर ही काम करती है. हालांकि एक बड़ा अंतर जो इसे NBA से अलग बनाता है, वो ये है कि इसका गठन संसद ने कानून बनाकर किया है.

प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक के अलावा मीडिया का एक और अहम हिस्सा है- डिजिटल

सुप्रीम कोर्ट में सुदर्शन टीवी के एक विवादित कार्यक्रम को लेकर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि टीवी और प्रिंट से पहले डिजिटल मीडिया पर कंट्रोल की जरूरत है.

सरकार ने कहा, ''मेनस्ट्रीम मीडिया यानी इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में प्रकाशन या प्रसारण एक बार ही होता है, वहीं डिजिटल मीडिया की व्यापक पाठकों/दर्शकों तक पहुंच तेजी से होती है और वॉट्सऐप, ट्विटर और फेसबुक जैसी कई इलेक्ट्रॉनिक एप्लिकेशन्स की वजह से जानकारी के वायरल होने की भी संभावना होती है. डिजिटल मीडिया पर कोई निगरानी नहीं है, जहरीली नफरत फैलाने के अलावा, यह व्यक्तियों और संस्थानों की छवि को धूमिल करने में भी सक्षम है.''

हालांकि, इसे लेकर विशेषज्ञों का कहना है कि भड़काऊ कॉन्टेंट या हेट स्पीच आदि से निपटने के लिए तो कानून पहले से ही हैं, मगर उनको सही तरीके से लागू करने की जरूरत है, जिसमें राजनीतिक दखल भी न हो. जब बात डिजिटल मीडिया को रेग्युलेट करने की होती है तो मामला इलेक्ट्रोनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया से ज्यादा पेचीदा हो जाता है, क्योंकि इंटरनेट की आजाद दुनिया में कोई भी सूचना और अपने विचार शेयर कर सकता है. ऐसे में चीन की तरह इंटरनेट स्पेस का गला घोंटे बिना डिजिटल मीडिया को रेग्युलेट करना आसान काम नहीं होगा.

आखिर में ये सवाल कि सही से मीडिया रेग्युलेशन हो, तो आपकी जिंदगी पर क्या असर पड़ सकता है. जवाब है- इससे मीडिया ज्यादा जिम्मेदार बनेगा, वो सूचना और तथ्यों को सनसनीखेज बनाने से बचेगा, और ऐसे में अहम मुद्दे कुचलेंगे नहीं, क्योंकि आप एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं तो किसी न किसी तरह आप भी इन मुद्दों से प्रभावित होंगे, और आपको यह तय करने में आसानी होगी कि क्या सही है और क्या गलत, और आप खुद के साथ-साथ समाज और देश के हितों की रक्षा के लिए आसानी से फैसला कर पाएंगे.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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