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वीडियो एडिटर: दीप्ती रामदास
कैमरा: शाह फैसल
बेरोजगारी प्रवासी को घर से दूर ले जाती है. मजदूरी से भूख तो मिट जाती है, लेकिन परिवार पीछे छूट जाता है. बूढ़े मां-बाप, पत्नी घर पर अकेली रह जाती है. बच्चे अभिभावक की निगाहों से महरूम हो जाते हैं. यही वजह है कि, बच्चों को अच्छी शिक्षा देने और बेहतर भविष्य के आस में कई प्रवासी परिवार शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं.
लॉकडाउन ने रोजगार छीना तो इन प्रवासी के लिए शहर की जिंदगी दूभर हो गयी. परिवार को लेकर किसी मुश्किल से गांव आए तो बच्चों की पढ़ाई भी छूट गयी.
रेहड़ी-पटरी पर काम करने वाले कासिम दिल्ली के इंदिरापुरी इलाके में चार बच्चों के परिवार संग रहते थे. महीने की कमाई किराए, खाना और बच्चों की पढ़ाई में बराबर हो जाती थी.
कासिम ने बताया-
लेकिन बच्चे इन चिंताओं से बेखबर. गांव की आजाद हवाओं में न लॉक डाउन की बेड़ियां हैं, न कोरोना का चिंता. छोटी बेटी अक्षरा कहती है, ‘दिल्ली इंदिरापुरी में रहती हूं. वहां खिलौने से खेलती थी. यहां नहीं है, पकड़म-पकड़ाई खेलती हूं.’
परिवार का सबसे बड़ा बच्चा साहिल को सुपरमैन बनना है, खुली जगह उसे भा गई है. - 'गांव में ज्यादा अच्छा लगता है. दिल्ली में खेलने की जगह कम है'
मां मनीषा जानती है, बच्चों ने क्या खोया है. उसे एहसास है खुशियों की कीमत क्या है?
जोधपुर में सिलाई-कढ़ाई का काम करने वाले नुरुल के दोनों बच्चे आदिल और निहारा ने डॉक्टर बनने का ख्वाब देखा है. बेटी को पढ़ाई छूटने की चिंता सता रही, पिता मौका मिलते ही परिवार संग वापस जाना चाहते हैं.
बेटी निहारा कहती है, 'जोधपुर में ज्यादा मन लगता है. वहां पढ़ाई करती हूं.'
नुरुल ने बताया-
अफसोस, हर किसी को जिंदगी ने इतनी लंबी चादर नहीं दी है. बूढ़े मां-पिता को ठेला में बिठाकर वाराणसी से अररिया लौटे 11 साल के तबारक ने इंजीनियर या आईपीएस बनने का ख्वाब देखा है. लेकिन उसकी जिंदगी ठेले के इर्द गिर्द ही घूम रही है. उसने बताया-
हालांकि मीडिया में खबरें आने के बाद तबारक की मदद के लिए कई लोग सामने आये हैं. तबारक के पिता इसराफिल ने बताया, 'स्कूल-मदरसा बंद है. कुछ लोग इसे अच्छे स्कूल में पढ़ाने में मदद करना चाहते हैं.'
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