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भारत के बेहतर भविष्य को लेकर ‘द क्विंट’ के एडिटर-इन-चीफ राघव बहल का विश्वास अडिग है. राघव ने अपनी जिंदगी के अनगिनत घंटे इस देश के बारे में सोचते, पढ़ते, बातें और बहस करते हुए बिताए हैं. वो इस सवाल से जूझते रहे हैं कि आखिर भारत को अपनी जड़ता से निकालने के लिए क्या करने की जरूरत है. कैसे यह देश अपनी नींद तोड़कर एक ग्लोबल आर्थिक और सामरिक ताकत बनने की ओर बढ़ सकता है.
राघव बहल की 'सुपर ट्रायोलॉजी' की आखिरी किताब 'Super Century: What India Must to Do To Rise by 2050 ' में इन सवालों के जवाब हैं. बहल ने19 जुलाई को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इस किताब की सफलता पर नामी-गिरामी शख्सियतों से चर्चा किया.
इस किताब पर चर्चा के लिए उनके साथ पैनल में रहे आरबीआई के पूर्व गवर्नर और संसद सदस्य डॉ. विमल जालान, लेखक गुरचरन दास, एमपी और आईआईएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर राजीव गौड़ा, जर्नलिस्ट और नेशनल सिक्योरिटी एक्सपर्ट प्रवीण स्वामी. इस चर्चा की मॉडरेटर रहीं ब्लूमबर्गक्विंट की मैनेजिंग एडिटर मेनका दोशी. आइए देखते हैं कि राघव बहल ने अपनी इस किताब में जिन मुद्दों पर चर्चा की है वो क्या हैं-
राघव सवाल करते हैं कि भारतीय मानस में ऐसा क्या है जो हमें एक राष्ट्र के रूप में अपने वादे पूरा करने में नाकाम बनाता है? हम जोखिम से इतना बचते क्यों हैं, हम औसत चीजों को भी बर्दाश्त क्यों कर लेते हैं और हम सब सामूहिक रूप से आत्मविश्वास की कमी से घिरे क्यों हैं? भारत के पास इतनी अधिक क्षमता है लेकिन ऐसा लगता है कि देश राजनीतिक इच्छाशक्ति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से जुड़ी भौगोलिक-आर्थिक ताकत जुटाने में नाकाम रहने की वजह से हमेशा ही किसी सोच को वास्तविक रूप देते-देते अटक जाता है. दांव पर अब तो काफी कुछ लगा है, पहले से कहीं ज्यादा और भारत के लिए यही सही मौका है.
भारत का आर्थिक पुनर्जागरण तभी शुरू हो सकता है जब हम ईमानदारी से एक सवाल का जवाब दें: भारतीय गरीब क्यों हैं? अगर हम समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्रों के आर्थिक इतिहास को देखें, तो हम पाते हैं कि उनमें तीन मूलभूत स्थितियां एक जैसी हैं: उन्होंने एक या अधिक संसाधनों (खेत, जमीन, श्रम, वित्तीय सेवाएं, व्यापार,प्रौद्योगिकी) से एक बड़ा 'सरप्लस' बनाया है; उन्होंने उस सरप्लस का निवेश बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और शिक्षा में किया है; और उनकी सरकारें अपने लोगों में इनोवेशन और एंटरप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देती हैं.
कोई भी देश जो इन तीन ताकतों को काम में लाता है, वो गरीबी खत्म कर देगा और स्वस्थ और समृद्ध बन जाएगा. भारत उस स्थिति से काफी दूर है. सही पूछें तो, हम उन स्थितियों में से किसी को भी पूरा करने में नाकाम रहे हैं: हमारे पास अधिक 'सरप्लस' नहीं है (शायद, सर्विसेज इंडस्ट्री को छोड़कर); जो कुछ भी हमारे पास है, उसे भीरू, निकम्मे या बेईमानों ने शोषण के जरिए बर्बाद कर डाला है; और लाल फीताशाही की मदद से हमारे लोगों की प्रतिभा का गला घोंटा जाता रहा है.
उन नाकामियों का असली स्रोत क्या है? खुद सरकार. इन बीमारियों को ठीक करने के लिए, हमें पूरी तरह से इस बात पर फिर से विचार करने की जरूरत है कि अर्थव्यवस्था को चलाने में राज्य को अपने आप को कैसे और कहां शामिल करना चाहिए. लेकिन इससे पहले कि हम नए पैमानों को तय करें, यह समझना बेहतर रहेगा कि आखिर हमसे गलतियां कहां हुईं.
बहल कहते हैं कि भारत को अगर एक सफल, जबरदस्त ढंग से कार्यशील और अंतरराष्ट्रीय तौर पर प्रतिष्ठित देश बनना है तो इसे राष्ट्र-राज्य की भूमिका बदलनी होगी. भारतीयों की आकांक्षाओं को उलझाने और इसे दूसरी तरफ मोड़ने की बजाय हमें खुलेपन के लिए प्रतिबद्धता दिखानी होगी. तभी हम एक देश के तौर पर घर और बाहर दोनों जगह अपनी क्षमताओं को जी सकेंगे.
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