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विचारधारा के सहारे संस्थाओं को कंट्रोल करने की है मोदीजी की जिद

सिर्फ 7 दिनों में लोकतंत्र के चारों स्तंभ-कार्यपालिका,विधायिका,न्यायपालिका और मीडिया को नए सिरे से परिभाषित किया गया

राघव बहल
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हफ्ते भर का समय जो पलक झपकते ही गुजर जाता है, उसमें लोकतांत्रिक परंपराओं को बदला गया है.
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हफ्ते भर का समय जो पलक झपकते ही गुजर जाता है, उसमें लोकतांत्रिक परंपराओं को बदला गया है.
(फोटो: द क्विंट)

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कहते हैं कि राजनीति में हफ्ते भर का वक्त भी लंबा होता है. लेकिन पिछले हफ्ते की घटनाओं ने दिखाया कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश की सियासत में जो नाटकीय बदलाव हुआ है, उसे साबित करने के लिए भी इतना समय काफी है.

सिर्फ सात दिनों में लोकतंत्र के चारों स्तंभ - कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया – को नए सिरे से परिभाषित किया गया.

2014 तक देश में मध्यमार्गीय राजनीति पर सबकी सहमति थी. ये पिछले चुनाव में बीजेपी की जीत से खत्म हो गई. आज इसमें कोई शक नहीं रह गया है क्योंकि बीजेपी सरकार के साढ़े चार साल का रिकॉर्ड हमारे सामने है.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने से पहले माना जाता था कि भारत का झुकाव लेफ्ट या राइट की तरफ हो सकता है, लेकिन ये रहेगा मध्यमार्गीय दायरे के अंदर. यहां उदारवादी विचारधारा ही चलेगी.

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजकाज के 6 साल में ये सोच और मजबूत हुई. उस सरकार का झुकाव राइट की तरफ था, लेकिन आजादी के 50 सालों में देश में जो लोकतांत्रिक संस्थान खड़े हुए थे, उन पर तब आंच नहीं आई थी.

मोदी सरकार ने बगैर किसी झिझक के उस मध्यमार्गीय रास्ते को बंद कर दिया. मैं तथ्यों के आधार पर ये बात कह रहा हूं. जजमेंट पास नहीं कर रहा. जो जनादेश मिला, उससे मोदी सरकार ने बहुसंख्यकवाद की इमारत खड़ी की. 2014 के बाद सरकार का दखल बढ़ा, कई फ्री मार्केट इंस्टीट्यूशंस का राष्ट्रीयकरण किया गया. इनमें दवा की कीमतों से लेकर स्पोर्ट्स राइट्स और तेल जैसी चीजें शामिल हैं.

ये सरकार खुलकर हिंदू हितों की बात करती है. अल्पसंख्यकों को आहत करना और उनके साथ अलग तरह के सलूक को वो सम्मान की बात समझती है. वो कट्टर सैन्य राष्ट्रवाद की वकालत करती है, जिस पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा हुआ है. यहां पार्टी कभी सरकार बन जाती है तो कभी वो खुद को राष्ट्र समझने लगती है.

इसलिए अगर आप बीजेपी या इस सरकार के खिलाफ हैं तो आपको ‘राष्ट्रद्रोही’ घोषित कर दिया जाता है. उदारवादी सोच का ये मजाक बनाती है. वैचारिक विरोधी उसके लिए ऐसे ‘शत्रु’ हैं, जिनका नामोनिशान मिटा देना चाहिए. वो इन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाती है, गद्दार कहती है. वो नहीं मानती कि राजनीतिक विरोधियों का नामोनिशान बौद्धिक विमर्श से मिटाना चाहिए. वो ऐसे संस्थानों को खत्म करना चाहती है, जिन्हें नरम और लचीला माना जाता है.

आइए देखते हैं कि किस तरह से तीन घटनाओं से ये बात साबित हुई है. कैसे हफ्ते भर का समय जो पलक झपकते ही गुजर जाता है, उसमें लोकतांत्रिक परंपराओं को बदला गया है.

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1.J&K विधानसभा को बेशर्मी से भंग किया गया

2015 में मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर पर अपने सख्त रुख को बदलते हुए एक साहसिक राजनीतिक कदम उठाया था. उसने ‘नरम अलगाववादी’ माने जाने वाली मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी के साथ राज्य में गठबंधन सरकार बनाई थी. लोगों ने तब तालियां बजाई थीं. उन्हें लगा कि मोदी शांति की पहल कर रहे हैं.

वह उम्मीद और पुराने शिकवे दूर करने का वक्त था, लेकिन ये उम्मीद बहुत जल्द टूट गई. तल्खियों के बोझ से अलायंस टूट गया और मोदी जम्मू-कश्मीर पर सैन्यवाद की नीति पर लौट गए.

उत्तर भारतीय नेता और एक पार्टी समर्थक को राज्य का राज्यपाल नियुक्त किया गया. इसके बाद पीडीपी को तोड़कर बीजेपी ने सरकार बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी. इस खतरे को भांपते हुए मोदी के तीनों विरोधी- पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस – ने आपसी मतभेद भुलाकर 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 50 से अधिक विधायकों का मजबूत बहुमत जुटाया.

लोकतांत्रिक परंपरा के मुताबिक उन्हें सरकार बनाने का न्योता मिलना चाहिए था, लेकिन राज्यपाल ने अजीब काम किया. उन्होंने अपनी फैक्स मशीन बंद कर दी और फैसला लेने के लिए 8 घंटे तक इंतजार किया, जब तक कि दिल्ली के हुक्मरानों से उनकी बातचीत नहीं हो गई. उन्हें विधानसभा भंग करने की हिदायत मिली. गवर्नर साहब ने फौरन उस पर अमल किया. इस तरह से विधायिका की परंपरा जूतों तले रौंदी गई.

मैं मानता हूं कि संविधान को ताक पर रखकर ऐसी हरकत करने वाले वह पहले गवर्नर नहीं हैं, लेकिन ये मामला जम्मू-कश्मीर का था. ये अशांत क्षेत्र है, लोग अलग-थलग पड़े हुए हैं (याद करिए कि कुछ ही दिनों पहले 95% जनता ने स्थानीय चुनाव का बहिष्कार किया था). खैर, राइट विंग विचारधारा के दबाव के चलते कार्यपालिका/विधायिका में विस्फोट हुआ और एक नाजुक सर्वसम्मति उसमें तबाह हो गई.

2.RBI गवर्नर को बोर्ड ने जंजीरों में जकड़ा

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की स्वायत्तता पर किसी को संदेह नहीं था, लेकिन मोदी सरकार उस पर राजनीतिक प्रभुत्व चाहती थी. नोटबंदी, जीएसटी और सुस्त इकोनॉमिक ग्रोथ ने छोटे कारोबारियों को जो नुकसान पहुंचाया है, वह उसे कम करने के लिए आरबीआई पर दबाव डाल रही थी. वह चाहती थी कि दर्जन भर सरकारी बैंक फिर से कर्ज बांटना शुरू कर दें, लेकिन इसके लिए उसे इन बैंकों में बड़ा निवेश करना पड़ता. आदर्श स्थिति में इसके लिए सरकारी खजाने का इस्तेमाल होना चाहिए था, लेकिन इससे बजट अनुमान बिगड़ जाते.

इसलिए उसने आरबीआई एक्ट के सेक्शन 7 का इस्तेमाल की धमकी दी, ताकि रिजर्व बैंक उसका कहा मानने के लिए मजबूर हो जाए. केंद्रीय बैंक के दमन के लिए इसका कभी इस्तेमाल नहीं हुआ था.

इतना ही नहीं, आरबीआई को झुकाने के लिए सरकार ने बोर्ड के लिए खास नॉमिनी चुने. आरबीआई गवर्नर को कुछ मांगें माननी पड़ीं, जबकि दूसरी मांगों पर सरकार ने कुछ हफ्तों तक चुप्पी साध ली है.

दिसंबर के मध्य में आरबीआई बोर्ड की मीटिंग है, जिसमें फिर से इनके लिए दबाव बनाया जाएगा. ये ऐसा युद्धविराम है, जो कभी भी खत्म हो सकता है. वैसे पहली बाजी सरकार ने जीत ली है, लेकिन इस मामले से गवर्नर और आरबीआई बोर्ड के रिश्ते शायद हमेशा के लिए बदल गए हैं.

3.सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और ‘शोर’ मचाने वाले पत्रकार

सीबीआई में जो तमाशा चल रहा है, उसके सामने तो रोमांचक जासूसी कहानियां लिखने वाले भी हल्के पड़ जाएं. सरकार ने सीबीआई का नया चीफ बिठाने के लिए आधी रात को हथियारबंद लोगों को भेजा. सीबीआई में जिन बड़े अफसरों के बीच झगड़ा चल रहा था, उन्हें निकाला गया. उनके दफ्तरों पर छापे मारे गए, गैजेट्स और फाइलों की जासूसी की गई. अगले दिन निकाले गए अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार को चुनौती दी. उसके खिलाफ तमाम याचिकाएं दायर कीं. अफसरों ने एक दूसरे के खिलाफ भी सर्वोच्च अदालत में पिटीशन फाइल कीं. हालांकि, इनमें से एक अधिकारी का अदालत को दिया गया जवाब लीक हो गया, जिससे अदालत भड़क गई.

लेकिन क्या कोर्ट ने यहां एक पक्ष को दोषी मानकर न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन किया है? ये लीक बचाव पक्ष के वकील के कीबोर्ड ऑपरेटर या कोर्ट क्लर्क किसी के यहां से हो सकता था, लेकिन बेंच ने सीबीआई चीफ को कसूरवार माना.

जज इस मामले से विचलित हैं. ये सामान्य केस नहीं है. इसलिए उनकी हालत कुछ हद तक समझी जा सकती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था कि ‘शोर’ मचाने वाले पत्रकार लोकतंत्र की लाइफलाइन होते हैं. सीबीआई मामले में वे एक न्यूज पोर्टल को ‘जो बातें नहीं छपनी चाहिए थीं’, उसे पब्लिश करने से नाराज हो गए. इससे एक झटके में लोकतंत्र के तीसरे और चौथे स्तंभ का जोड़ टूट गया.

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