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‘दरबारी कवियों’ के दौर में बहुत याद आते हैं ‘दिनकर’

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आजादी के पहले ‘विद्रोही’ और आजादी के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में जाने जाते हैं.

मौसमी सिंह
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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आजादी के पहले ‘विद्रोही’ और आजादी के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में जाने जाते हैं
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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आजादी के पहले ‘विद्रोही’ और आजादी के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में जाने जाते हैं
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: दीप्ति रामदास

ऐसे वक्त में जब देश में जरूरी सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं. तब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' का ना होना कुछ अखर सा जाता है. ये वही दिनकर थे, जिन्होंने चीन के मसले पर अपनी पुरानी कविता की पंक्तियों से नेहरू पर तंज कसा था.

"रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर."

ये तंज उन नेहरू पर भी था, जिन्हें दिनकर ने "लोकदेव" की उपाधि देते हुए "लोकदेव नेहरू" जैसी किताब लिखी थी. नेहरू ने भी उनकी मशहूर गद्य कृति "संस्कृति के चार अध्याय" की भूमिका लिखी थी.

“मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक और दिलचस्प है. यह ऐसा विषय है, जिससे अक्सर मेरा अपना मन भी ओतप्रोत रहा है और मैंने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप आप-से-आप पड़ गयी है.”
जवाहर लाल नेहरू

रामधारी सिंह 'दिनकर' एक ऐसे कवि थे जिनके लिए राष्ट्र का मतलब सिर्फ भूगोल नहीं उसमें बसने वाली जनता थी. वीर रस की रचनाओं को लोगों की रगों तक उतारने और कई कालजयी रचनाओं की अनमोल धरोहर देने वाले रामधारी सिंह 'दिनकर' आजादी के पहले 'विद्रोही' और आजादी के बाद 'राष्ट्रकवि' के रूप में जाने जाते हैं.

"फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है "

(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

एक 'जनकवि' का जीवन

बिहार के बेगूसराय का सिमरिया गांव. गांव में घुसते ही दीवारों पर लिखी कविताएं दिखने लग जाती हैं.

(फोटो: accessed by Quint Hindi)

इतिहास की तारीख़ें बताने लगती हैं कि 23 सितंबर 1908 को इसी सिमरिया गांव में दिनकर का जन्म हुआ था. इसी गांव की गलियों में ढंग से खेलना भी शुरू नहीं हुआ था और दो साल के रामधारी के पिता रवि सिंह दुनिया से जा चुके थे. मां मनरूप देवी ने परवरिश की. 13 साल की उम्र में श्यामवती देवी से शादी हुई.

15 साल में मै‍ट्रिक की परीक्षा पास की. प्रांत में हिंदी में सबसे ज्‍यादा नंबर लाने पर उन्हें भूदेव स्‍वर्ण पदक पुरस्‍कार मिला था. 1932 तक पटना कॉलेज के छात्र रहे दिनकर ने इतिहास से बीए ऑनर्स किया. उसके बाद स्‍कूल टीचर बने और फिर 1942 तक सब-रजिस्‍ट्रार रहे.

1947 में बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में डिप्‍टी डायरेक्‍टर बने. पोस्‍ट ग्रेजुएशन किए बिना ही प्रतिभा के आधार पर कॉलेज में लेक्‍चरर नियुक्‍त हुए. 1952 में राज्यसभा सांसद बने. 12 साल तक सदस्‍य रहने के बाद भागलपुर विश्‍वविद्यालय में कुलपति बने. केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय में हिंदी सलाहकार के तौर पर भी उन्होंने काम किया. दिनकर के दो पुत्र रामसेवक सिंह और केदार सिंह और 2 पुत्री विनता देवी और विभा देवी हैं.

(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

'राष्ट्रकवि' बनने का सफर

दिनकर ने छात्र रहते हुए स्‍वाधीनता संघर्ष को करीब से देखा जिससे राष्‍ट्रवाद, आजादी, समाजवाद, साम्‍यवाद जैसी चीजों का असर उनके लेखन में देखने को मिला. उन्हें और मैथिलीशरण गुप्त को ही देश में 'राष्ट्रकवि' का गौरव प्राप्त हुआ है. दिनकर की पहली कविता 'विजय संदेश' 1928 में छपी थी. गुजरात में बारदोली आंदोलन सफल होने के बाद उन्होंने इस लिखा था. इसे बारदोली विजय के नाम से भी जाना जाता है.

26 जनवरी 1950 को पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर उनकी लिखी कविता 'सिंहासन खाली करो...' ने 25 साल बाद 1975 में फिर से पूरे देश को झकझोरने का काम किया था. कविता इमरजेंसी के खिलाफ हुए आंदोलन की गीत बन गई थी. जयप्रकाश नारायण ने खुद दिल्ली के रामलीला मैदान में दिनकर की इस कविता सुनाकर लोकतंत्र की रक्षा का आह्वान किया था.

सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

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(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

दिनकर ने देशवासियों की रगों में कविताओं के जरिए तो जोश भरा ही, अनेक कालजयी निबंध लिखकर लोगों को जीवन जीने का सही तरीका भी सिखाया.

‘हिम्मत और जिंदगी’
"साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं. झुंड में चलना और झुंड में चरना, यह भैंसे और भेंड़ का काम है. सिंह तो बिल्‍कुल अकेला होने पर भी मग्न रहता है."

दिनकर एक इंटरव्यू में अपनी शैली के बदलाव के बारे बताते हुए कहते हैं-

“1965 से 1969 में मेरी कोई कविता पुस्तक की नहीं निकली क्योंकि कविता लिखना ही बंद हो गया था. अपवाद में पाकिस्तानी आक्रमण के समय कुछ कविताएं लिखी थी. इतने दिन कविता न लिखने का परिणाम ये हुआ कि मेरी शैली बदल गई.”

दिनकर की विचारधारा

'उर्वशी' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के मौके पर उन्होंने कहा था -

“जिस तरह मैं जवानी भर इकबाल और रवीन्द्र के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन-भर, गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसीलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का रंग है. मेरा विश्वास है कि अन्ततोगत्वा यही रंग भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा.”

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रशंसक दिनकर ने जय प्रकाश नारायण पर भी कविता लिखी है. दिनकर की करीब 60 कृतियां हैं, जिनमें 33 काव्‍य और 27 गद्य ग्रंथ शामिल हैं. गद्य में ज्‍यादातर निबंधों का संकलन ही है.

महात्मा गांधी की हत्या को लेकर दिनकर ने कट्टरपंथियों को अपनी कविता से फटकारा भी था.

''लिखता हूं कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर,
बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर."

दिनकर की ये कविताएं आज भी हर देशवासी को आंदोलित करने के लिए काफी है.

समर शेष है...
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

शक्ति और क्षमा
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो

दिनकर का सेंस ऑफ ह्यूमर भी कमाल का था. इन पंक्तियों से आप खुद ही इसका अंदाजा लगा सकते हैं.

शादी वह नाटक अथवा वह उपन्यास है,
जिसका नायक मर जाता है पहले ही अध्याय में.

ब्याह के कानून सारे मानते हो?
या कि आँखें मूँद केवल प्रेम करते हो?
स्वाद को नूतन बताना जानते हो?
पूछता हूँ, क्या कभी लड़ते-झगड़ते हो?

(ग्राफिक्स: क्विंट हिंदी)

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