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‘सारागढ़ी’ की कहानी: सिर्फ 21 सिख सैनिकों की 10000 अफगानों से जंग 

भारतीय सेना की आधुनिक सिख रेजीमेंट 12 सितम्बर को हर साल ‘सारागढ़ी दिवस’ मनाती है

शौभिक पालित
वीडियो
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भारतीय सेना की आधुनिक सिख रेजीमेंट 12 सितम्बर को हर साल ‘सारागढ़ी दिवस’ मनाती है
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भारतीय सेना की आधुनिक सिख रेजीमेंट 12 सितम्बर को हर साल ‘सारागढ़ी दिवस’ मनाती है
(फोटो: क्विंट हिंदी/आर्णिका काला)

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कैमरा: शिव कुमार मौर्य

वीडियो एडिटर: दीप्ती रामदास

इलस्ट्रेशन: आर्णिका काला

मशहूर हॉलीवुड मूवी '300' तो आपको जरुर याद होगी. ये फिल्म उस ऐतिहासिक जंग पर बनी थी, जब थर्मोपाएल के युद्ध में स्पार्टा के किंग लियोनाइडस ने अपने 300 सैनिकों के साथ पर्शियन साम्राज्य की विशाल सेना का बहादुरी से मुकाबला किया और आखिरी सांस तक लड़े.

लेकिन क्या आप जानते है कि बिलकुल ऐसी ही जबरदस्त जांबाजी की एक अनूठी मिसाल हमारे भारतीय जवानों के नाम भी दर्ज है. सारागढ़ी की जंग इतिहास के पन्नों में छुपी ऐसी ही एक दास्तां है, जिसके बारे में जानकर आपका सिर फक्र से ऊंचा हो जाएगा.

तो आइए आपको बताते हैं कि कैसे महज 21 सिख सैनिकों की टुकड़ी 10,000 अफगानी सैनिकों के लिए काल बन गई, जब गोलियां खत्म हो गई तो इन जवानों ने तलवारों से दुश्मनों को चीर डाला.
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‘सारागढ़ी’ पाकिस्तान के हिंदुकुश पर्वतमाला के खैबर पख्तूनवा इलाके पर मौजूद एक छोटा सा गांव है. ब्रिटिश शासन में 36 सिख रेजीमेंट, सरागढ़ी पोस्ट पर तैनात थी. ये सैन्य चौकी फोर्ट लॉकहार्ट और फोर्ट गुलिस्तान नाम के दो किलों के बीच एक कम्युनिकेशन नेटवर्क कायम करने का काम करती थी.

अफगानिस्तान के पश्तून और ओराकजाई कबायली लड़ाके इस अहम पोस्ट पर कब्जा करना चाहते थे, ताकि दोनों किलों पर कब्जा किया जा सके.

27 अगस्त से 11 सितंबर 1897 के बीच अफगानी लड़ाकों ने सारागढ़ी किले पर कब्जे के लिए कई छोटे हमले किए, लेकिन अंग्रेजों की तरफ से देश के लिए लड़ रहे 36 सिख रेजिमेंट ने हर बार उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. आखिरकार 12 सितंबर 1897 को 10 हजार अफगानों ने सारागढ़ी के पोस्ट पर हमला कर दिया.

अब सिलसिलेवार तरीके से जानिए कि 12 सितंबर 1897 को मैदान-ए-जंग में क्या-क्या हुआ

सुबह 9 बजे के आसपास 10,000 अफगान लड़ाकों ने सारागढ़ी किले की ओर कूच किया.

सिपाही और सिग्नलमैन गुरमुख सिंह फोर्ट लॉकहार्ट में मौजूद कमांडर ऑफिसर कर्नल हॉगटन को मैसेज भेजते हैं कि पोस्ट पर हमला होने वाला है.

कर्नल हॉगटन कहते हैं कि वे सारागढ़ी पोस्ट को तुरंत मदद नहीं भेज सकते. इसके बाद टुकड़ी के 21 सैनिकों ने सरेंडर करने की बजाय आखिरी सांस तक लड़ने का फैसला किया. लांसनायक लाल सिंह और सिपाही भगवान सिंह ने अपनी रायफल उठाई और दुश्मनों को गोलियों से भूनते हुए आगे बढ़ने लगे. भगवान सिंह शहीद हो गए और लाल सिंह गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं.

पश्तून सेना सिख सैनिकों को सरेंडर करने के लिए कहती है, लेकिन भारतीय जाबांज इस पेशकश को ठुकरा देते हैं.

सिख सैनिकों के इस हौसले से दुश्मनों में हड़कंप मच गया. उन्हें लगा मानो कोई बड़ी सेना किले के अंदर मौजूद है.

फाटक खोलने के लिए दो बार कोशिशें की जाती हैं, लेकिन दोनों बार अफगानों को नाकामयाबी हाथ लगती है.

दुश्मन की फौज किले की दीवार के एक हिस्से को तोड़ देते हैं. इसके बाद शुरू होती है आमने-सामने की भयंकर लड़ाई.

टुकड़ी के इंचार्ज हवलदार इशर सिंह कुछ सैनिकों के साथ मोर्चा संभालते है और अपने बाकी सैनिकों को किले के भीतरी हिस्से में रहने का आदेश देते हैं.

अपने साथियों के साथ हवलदार इशर सिंह दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं.

कई घंटों तक बहादुरी से दुश्मनों का मुकाबला करने के बाद इशर सिंह और उनके साथी शहीद हो जाते हैं.

इसके बाद अफगानी फौज किले में आग लगाते हुए के उसके भीतरी हिस्से में दाखिल होती हैं. तब तक किले में सिर्फ 5 भारतीय सैनिक जिंदा बचे थे. इनमें से गुरमुख सिंह सिंग्नल टावर पर तैनात थे. जमीन पर मौजूद चारों सैनिकों ने बेमिसाल बहादुरी की मिसाल देते हुए दुश्मनों के बहुत से सैनिकों को मार डाला, और आखिरकार शहीद हो गए.
दोपहर 3:30 बजे, जंग में जिंदा बचे आखिरी सैनिक गुरमुख सिंह ने सारागढ़ी के सिग्नल टावर से अंतिम संदेश भेजकर लड़ाई में शामिल होने की इजाजत मांगी. उन्हें इजाजत मिल गई.

19 साल के गुरमुख सिंह इस टुकड़ी में सबसे कम उम्र के सैनिक थे. उन्होंने अपने साजो सामान को एक चमड़े के बैग में पैक किया, और हथियारों के साथ टावर से नीचे उतर आए.

कहा जाता है कि दुश्मनों के हाथों जिंदा जलाए जाने से पहले गुरमुख सिंह ने बहादुरी से लड़ते हुए 20 दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया था.

इस खूनी जंग के बाद दुश्मन बुरी तरह थक गए और तय रणनीति से भटक गए. अगले दिन ब्रिटिश आर्मी वहां भारी हथियारों के साथ पहुंची और अगले दो दिनों तक चले घमासान युद्ध के बाद सारागढ़ी किले पर दोबारा कब्जा कर लिया गया. इस दौरान 600 से ज्यादा अफगानी मारे गए, कई बंदी बनाए गए और बाकी भाग गए.

ब्रिटिश संसद में इन शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई, और इस अनूठी जांबाजी के लिए 36 सिख रेजीमेन्ट के सभी 21 शहीद जवानों को परमवीर चक्र के बराबर विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया.

भारतीय सेना की आधुनिक सिख रेजीमेंट 12 सितम्बर को हर साल 'सारागढ़ी दिवस' मनाती है. जिसमें उन वीरों के पराक्रम और बलिदान के सम्मान में जश्न मनाया जाता है.

ऐसे शूरवीरों को क्विंट का सलाम !

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Published: 23 Feb 2019,06:37 PM IST

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