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पिछले हफ्ते दो बड़ी खबरें आईं. दोनों में एक जैसे इंग्रेडिएंट्स थे, फर्क था तो एक मामूली‘t’ का. एक खबर Statue यानी मूर्ति से जुड़ी थी, तो दूसरी Statute यानी कानून या विधान से. इन दोनों के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे. पहली खबर में उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनाने का 6 साल पुराना वादा पूरा किया था.
सरदार आरएसएस को पसंद नहीं करते थे. वह उसके धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से आशंकित थे. महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था. दूसरी में आरबीआई गवर्नर पटेल को आरएसएस का पुरातन अर्थशास्त्र हजम नहीं हो रहा था, जिसकी झलक संघ के विचारक एस गुरुमूर्ति ने पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के बारे में दिए गए बयान दिखाई थी. गुरुमूर्ति ने कहा था,‘रघुराम राजन ने वैश्विक सोच का पिछलग्गू बनकर आरबीआई की स्वायत्तता बर्बाद कर दी. रिजर्व बैंक के पास भारत के लिए सोचने की क्षमता नहीं बची है.’
बदकिस्मती से यह बाहरी शख्स की बड़बड़ाहट नहीं रह गई. इसके कुछ ही समय बाद एक सम्मानित कमर्शियल बैंकर को बेअदबी से निकालकर गुरुमूर्ति को आरबीआई के बोर्ड में घुसा दिया गया. जिस तरह से 70 साल पहले सरदार को आरएसएस पर अंकुश लगाना पड़ा था, उसी तरह से गवर्नर पटेल को अपने ही घर में हिंदुत्व (आर्थिक नीति) से संघर्ष करना पड़ रहा है.
दोनों ही खबरों से बड़ी रकम भी जुड़ी है. एक में 95 हजार टन के कंस्ट्रक्शन मैटीरियल को पिघलाने, सांचे में ढालने के लिए 3,000 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ी तो दूसरे में चुनाव जीतने की खातिर दिल खोलकर खर्च कर रही मोदी सरकार की नजर 3 लाख करोड़ के सरप्लस पर थी, जिसे कई दशक के मुनाफे से जमा किया गया है.
जाने-माने अर्थशास्त्रियों की सलाह की अनदेखी की गई, जिन्होंने कहा कि देश के चालू खाता घाटे की समस्या की वजह से आरबीआई की बैलेंस शीट मजबूत होनी चाहिए. नोटबंदी से मोदी जो नोट हासिल नहीं कर पाए, वह उसकी भरपाई रिजर्व बैंक से करना चाहते थे.
Statue अगर महंगी भी हो तो वह अच्छाई का प्रतीक बन सकती है, लेकिन Statute न्यूक्लियर बटन की तरह है. देश का संविधान बनाने वालों ने ‘नो फर्स्ट यूज’ डॉक्ट्रिन के साथ उसे तैयार किया था, इस उम्मीद के साथ कि इसके इस्तेमाल की नौबत ना आए. इसे इमरजेंसी सिचुएशन के लिए बनाया गया है.
आरबीआई कानून की धारा 7 सरकार को किसी भी मुद्दे पर केंद्रीय बैंक को विमर्श थोपने का अधिकार देती है. इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन इस धारा में यह भी कहा गया है कि सरकार अपनी बात मानने के लिए आरबीआई को मजबूर कर सकती है.
अगर इस धारा का इस्तेमाल यूं ही किया जाने लगा तो इससे इकोनॉमिक गवर्नेंस का बुनियादी सिद्धांत ही धराशायी हो जाएगा. इस सिद्धांत के तहत केंद्रीय बैंक देशहित में लॉन्ग टर्म मॉनेटरी पॉलिसी बनाता है. वह अस्थायी, झूठे फील गुड फैक्टर के लिए सरकार के तुगलकी फरमानों के सामने हथियार नहीं डालता.
एक मुश्किल चुनाव से कुछ महीने पहले तो बिल्कुल भी नहीं, जब सरकार सत्ताविरोधी लहर कम करने के लिए उसका इस्तेमाल करना चाहती हो.
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