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वीडियो प्रोड्यूसर - मौसमी सिंह
वीडियो एडिटर - पूर्णेन्दु प्रीतम
कैमरापर्सन - अभिषेक रंजन
ये जो इंडिया है न यहां पर हम सब अर्णब गोस्वामी के बारे में बात कर रहे हैं लेकिन साथ में हमें देशद्रोह, अंधराष्ट्रवाद, नफरती भाषा, अभिव्यक्ति की आजादी, न्यूजरूम लिंचिंग और मीडिया की आजादी के बारे में भी बात करनी चाहिए. साथ में ये भी की जब ऐसे विशेष मुद्दे सामने आते हैं तो हमारी अदालतों का क्या रवैया होता है.
सबसे पहले जमानत मिलने के तुरंत बाद न्यूजरूम में अर्णब ने महाराष्ट्र पुलिस के बर्ताव पर जो कहा उसे जानिए.
अर्नब अपने पर्सनल कोर्टरूम (टीवी स्टूडियो) में बैठकर बिना सबूतों के कई भारतीयों को आतंकी बनाकर अपने शब्दों से शर्मसार कर चुके हैं. इसके बाद क्या महाराष्ट्र पुलिस का ये एक्शन सही था? जाहिर सी बात है नहीं. ये सब तो राजनीति है, जबकि सुप्रीम कोर्ट का जमानत का फैसला सही था, लेकिन फिर भी सवाल तो बनता है-
उन लोगों के बारे में क्या जिन्हें अर्णब रोजाना अपने कटघरे में खड़ा करते हैं और आतंकी करार देते हैं वो भी बिना सबूत के?
क्या वो भी निष्पक्ष कार्रवाई के हकदार नहीं हैं? खासकर अपने देश की अदालतों से?
मंजुल के इस कार्टून पर नजर डालिए इसमें हमारे देश की अदालतें एक कौए रूपी अर्णब को रिहा करती हैं. जबकि कई अन्य पक्षी जेल में बंद दिखाई देते हैं.
क्विंट से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट की वकील करुणा नंदी ने सीधा सवाल किया -
नंदी ने मानवाधिकार एक्टिविस्ट और भीमा कोरेगांव केस की आरोपी सुधा भारद्वाज का उदाहरण दिया. सितंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भारद्वाज की अंतरिम जमानत याचिका की सुनवाई से इंकार कर दिया था. इस तथ्य के बावजूद की दो साल जेल में रहने के बाद भी उन पर चार्ज नहीं लगाया गया है. उनके खिलाफ सबूत भी नहीं पेश किए गए हैं. 60 साल की उम्र में वो डायबिटिक थी इसलिए Covid 19 टेस्ट कराना चाहती थी.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि “आपकी याचिका बॉम्बे हाई कोर्ट में पेंडिंग है आप वहां जाइए.”
अगर देखें तो अर्णब गोस्वामी की भी याचिका अलीबाग सेशन कोर्ट में लंबित थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका पर सुनवाई की और जमानत दे दी.
एक ही तरह के केस में दो पैमाने क्यों ? जबकि सुधा भारद्वाज जेल में ही हैं.
अर्णब न्यूजरूम में लौट आए हैं. सुधा भारद्वाज को टारगेट करने के लिए वही सुधा भारद्वाज जिन्हें वो आए दिन बिना किसी सबूत के देशद्रोही कहते हैं.
अर्णब को जमानत देते वक्त सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ ने कहा-
सही कहा. लेकिन जवाब में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने अदालत से कहा कि -
कुछ लोग तर्क से कह सकते है कि सुधा भारद्वाज को UAPA यानी आतंक विरोध कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था जबकि गोस्वामी को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में इसलिए उनकी जमानत याचिका को अलग देखने की जरूरत है. लेकिन तथ्य ये है कि UAPA के तहत कुछ लोगों को समय का फायदा उठाने के लिए भी गिरफ्तार किया गया है. जिसमें आरोपियों को बिना आरोप तय किए, बिना सबूत दिखाए महीनों तक जेल में रखा जा सकता है.
पिंजड़ा तोड़ एक्टिविस्ट देवांगना कलिता का केस देखिए. दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें नॉर्थ - ईस्ट दिल्ली हिंसा के मामले में जमानत दे दी. जिसमें उन पर हत्या, दंगा और साजिश रचने का आरोप था. कोर्ट ने कहा कि “उन्होंने केवल शांतिपूर्ण आंदोलन में हिस्सा लिया.” पुलिस के पास उनके खिलाफ नफरती भाषा या हिंसा भड़काने का कोई सबूत नहीं था. तो उनकी हिरासत अनुचित थी.
एक दूसरे केस में देवांगन UAPA के अंतर्गत इन्हीं आरोपों का सामना कर रही हैं और चूंकि UAPA के तहत पुलिस को सबूत दिखाने की जरूरत ही नहीं है, इस केस में उन्हें जमानत अब तक नहीं मिली है. यानी उसी ज्यूडिशियल सिस्टम ने समान आरोप में एक केस में जमानत दी और दूसरे में नहीं.
क्या ये न्यायिक संकट नहीं है ?
क्या ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच नहीं ? वही व्यक्तिगत स्वतंत्रता जिसे अर्णब गोस्वामी के केस में सुप्रीम कोर्ट ने इतनी मुस्तैदी से बचाया?
फिर पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को अपनी जमानत याचिका पर सुनवाई के लिए जेल में महीनों क्यों बिताने पड़े.
सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसे कई केस हैं. इनमें एक्शन लेने के लिए क्या महीने और साल गुजर जाने चाहिए ?
जी नहीं.
जम्मू कश्मीर की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट ने अवैध हिरासत यानी illegal detention को लेकर कई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas corpus petition) को अनदेखा किया है. जम्मू कश्मीर के स्पेशल स्टेटस को हटाए जाने के बारे में जो संवैधानिक सवाल उठाए गए है उनकी सुनवाई में भी बहुत देरी की है.
क्या इससे जम्मू कश्मीर में रहने वाले लाखों भारतीयों की पर्सनल लिबर्टी पर आंच नहीं आती?
हाल ही में जर्नलिस्ट सिद्दीकी कप्पन के मामले में जमानत की संभावना कम ही दिखती है ऐसा क्यों? फिर से वही UAPA. उन्हें 5 अक्टूबर 2020 को UAPA के तहत राजद्रोह यानी सेडिशन के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. वो तीन लोगों के साथ हाथरस गैंगरेप केस कवर करने जा रहे थे. एफआईआर में उनका नाम तक नहीं है लेकिन पुलिस का दावा है कि वो आतंकी गतिविधि के लिए फंड इकट्ठा कर रहे थे. लेकिन कोई सबूत नहीं दिया गया.
क्या कोई सबूत है ? हम नहीं जानते बिल्कुल देवांगन कलिता के मामले के जैसे, हो सकता है सबूत है भी नहीं लेकिन क्या पुलिस सबूत देने के लिए बाध्य है? नहीं UAPA की वजह से. 40 दिनों से ज्यादा वो जेल में रह चुके हैं. क्या एक ऐसा न्यायिक मुद्दा नहीं जिसमें सुप्रीम कोर्ट का दखल देना जरूरी है? बिल्कुल है. हमारी अदालतों ने अर्णब की स्वतंत्रता को बरकरार रखा. हमें पूरी उम्मीद है कि वो सिद्दीकी के साथ भी ऐसा ही करेंगे.
आखिर में हमने सुप्रीम कोर्ट के इस सुझाव को सुना. अगर हम विचारधारा में अर्णब से अलग है तो हम उनका चैनल न देखें. ठीक है, लेकिन वो अगर नफरती बातें करते हैं तो क्या उसे भी नजरअंदाज कर दें?
ये जो इंडिया है न...हमारी अदालतों को ये बताने की जरूरत है की "कैसे मेरी ट्वीट या भाषा देशद्रोह और नफरती भाषा बन जाते हैं?"
जबकि अर्णब के भड़काऊ बयानों को पत्रकारिता माना है? और इस आरोप में क्या जमानत मिलना उतना ही आसान होगा?
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