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वीडियो एडिटर: विशाल कुमार
ये जो इंडिया है ना... थोड़ी अटपटी सही थोड़ी अस्त-व्यस्त सी सही लेकिन है एक लोकतंत्र. कुछ देश अब भी शेखों और शाहों को झेल रहे हैं, कुछ लोकतंत्र का ढोंग करते हैं, जहां एक ही नेता 25-30 साल तक राज करता है तो कहीं सीधे मिलिट्री शासन है लेकिन भारत, लोकतंत्र का एक जीता जागता चमत्कार है, जो दशक दर दशक अपनी मूल पहचान को कायम रखे हुए है.
एक संघ, एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र- कम ही लोग नरेंद्र मोदी की कूटनीतिक कामयाबियों पर सवाल उठा सकते हैं एक तरफ उन्होंने ईरान से रिश्ते ठीक किए हैं. तो दूसरी तरफ उसके विरोधी देश सऊदी अरब और इजराइल से भी दोस्ती की है, वो एक तरफ शी जिनपिंग को अहमदाबाद लेकर आते हैं.
दूसरी तरफ डोनाल्ड ट्रंप को भी लगता है दोनों को साबरमती आश्रम में एक ही जगह बिठाया भी हो तो सवाल ये है कि मोदी सरकार इतनी मेहनत से कमाई गई इस सियासी पूंजी और साख को गंवाने पर क्यों तुली हुई है?
अफसोस पिछले कुछ महीनों में, यही हो रहा है ये जो इंडिया है ना... दुनिया इस इंडिया से आज कल नाराज है इतने अर्से बाद पहली बार हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर सवाल उठ रहे हैं.
उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार हाई कमिश्नर भारत के सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संसोधन कानून यानी CAA के खिलाफ अपील करने जा रही हैं उनका कहना है-
फिर बर्नी सैंडर्स को ले लीजिए सैंडर्स अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन सकते हैं और अगर उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप को हरा दिया तो वो अमेरिका के राष्ट्रपति भी बनेंगे और अगर ऐसा हुआ तो मोदीजी उन्हें नजरअंदाज भी नहीं कर पाएंगे बर्नी सैंडर्स ने नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में हुई हिंसा की आलोचना की है
2 मार्च को ब्रिटेन की हाउस ऑफ कॉमन्स यानी उनकी लोकसभा में लेबर पार्टी, लिबरल और कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों ने CAA और दिल्ली में हुई हिंसा की निंदा की उनके जूनियर विदेश मंत्री नाइजेल एडम्स ने साफ कहा
ये जो इंडिया है ना अब उसके मानवाधिकार रिकॉर्ड, बढ़ती असहिष्णुता, अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के बारे में रोज सवाल उठ रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र को, ब्रिटेन के सांसदों को, बर्नी सैंडर्स को हम ये कह सकते हैं. जैसा कि हमारा विदेश मंत्रालय कर भी रहा है कि आप कौन होते हैं हमारे अंदरूनी मामलों पर बोलने वाले लेकिन क्या हमें पक्का यकीन है कि हम उनके विचारों को, उनके सवालों को नजरअंदाज कर सकते हैं
ऐसे नारे दिल्ली के चुनाव में बीजेपी के काम तो नहीं आए अब ये देश के बाहर भी हमारा नुकसान कर रहे हैं अमेरिका के सबसे लोकप्रिय अखबारों में से एक न्यूयॉर्क टाइम्स ने कपिल मिश्रा के भाषण को भड़काऊ बताया लेकिन हम यहां स्वांग कर रहे हैं कि ऐसा नहीं नहीं था कई अखबारों ने चश्मदीदों के हवाले से कहा है कि हिंसा को बढ़ने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने कुछ नहीं किया और यहां किसी एक पुलिस वाले को भी सस्पेंड नहीं किया गया
क्या हम दुनिया के सबसे सम्मानित अखबारों की राय को नजरअंदाज कर सकते हैं? क्या उन्हें 'प्रेस्टिट्यूट' कह कर दरकिनार कर सकते हैं? क्या हम आंख मूंदकर गोदी मीडिया की आकाशवाणी पर यकीन कर सकते हैं?
चलिए देखिए हमारे कुछ पड़ोसी क्या कह रहे हैं-
हम अपने कितने पड़ोसियों को नाराज करना चाहते हैं?
दुनिया के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्ते अमूल्य हैं क्या हमें इन रिश्तों की कद्र नहीं? अगर है तो हमें इसकी फिक्र होनी चाहिए कि हमारे बारे में क्या कहा जा रहा है और हमें इसपर कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए, तब भी जब हमारी कोई आलोचना कर रहा हो..
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