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‘नया हुक्म-नामा’: डेमोक्रेसी, डिसेंट और डाइवर्सिटी के रंगों के नाम

उर्दूनामा: ‘नया हुक्मनामा’ हर उस चीज़ के बारे में है जिसे न्यू इण्डिया’ को करीब से देखने की ज़रूरत है.

फ़बेहा सय्यद
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यह नज़्म हर उस चीज़ के बारे में है जिसे न्यू इण्डिया’ को करीब से देखने की ज़रूरत है.
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यह नज़्म हर उस चीज़ के बारे में है जिसे न्यू इण्डिया’ को करीब से देखने की ज़रूरत है.
(फोटो: अर्निका कला/क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: आशुतोष भरद्वाज

हमारी उर्दूनामा की वीडियो सीरीज दोबारा शुरू हो चुकी है. और इसके पहले एपिसोड में हम जावेद अख्तर की नज़्म 'नया हुक्म नामा' आपके लिए पढ़ रहे हैं. ध्यान से समझेंगे तो ये नज़्म 'डेमोक्रेसी, डिसेंट, डाइवर्सिटी' के बारे में हैं. और एक ही रंग की दुनिया बनाने की ख्वाहिश रखने वालो के लिए एक वार्निंग की तरह इसे समझा जा सकता है.

यह नज्म हर उस चीज के बारे में है जिसे न्यू इण्डिया' को करीब से देखने की ज़रूरत है. डिसेंट और विविधता के रंगों से सजे लोकतंत्र के बारे में ये नज्म है. जिस में कवि एक जरूरी सवाल पूछता है कि हमें इन सब की जरूरत क्यों है? और अगर इन सब से हमें वंचित रखा जाएगा, तो क्या होगा?

इस वीडियो में क्विंट की फबेहा सैय्यद इसे समझाते हुए पढ़ रही हैं.

किसी का हुक्म है सारी हवाएं

हमेशा चलने से पहले बताएं

कि उन की सम्त क्या है

किधर जा रही हैं

हवाओं को बताना ये भी होगा

चलेंगी अब तो क्या रफ्तार होगी

हवाओं को ये इजाजत नहीं है

कि आंधी की इजाजत अब नहीं है

हमारी रेत की सब ये फसीलें

ये कागज के महल जो बन रहे हैं

हिफाजत उन की करना है जरूरी

और आंधी है पुरानी इनकी दुश्मन

ये सभी जनते हैं

किसी का हुक्म है दरिया की लहरें

जरा ये सर-कशी कम कर लें अपनी हद में ठहरें

उभरना फिर बिखरना और बिखर कर फिर उभरना

गलत है ये उन का हंगामा करना

ये सब है सिर्फ वहशत की अलामत

बगावत की अलामत

बगावत तो नहीं बर्दाश्त होगी

ये वहशत तो नहीं बर्दाश्त होगी

अगर लहरों को है दरिया में रहना

तो उन को होगा अब चुप-चाप बहना

किसी का हुक्म है

इस गुलिस्तां में बस इक रंग के ही फूल होंगे

कुछ अफसर होंगे जो ये तय करेंगे

गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का

यकीनन फूल तो यक-रंगीं होंगे

मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल्का

ये अफसर तय करेंगे

किसी को ये कोई कैसे बताए

गुलिस्तां में कहीं भी फूल यक-रंगीं नहीं होते

कभी हो ही नहीं सकते

कि हर इक रंग में छुप कर बहुत से रंग रहते हैं

जिन्होंने बाग-ए-यक-रंगीं बनाना चाहे थे

उन को जरा देखो

कि जब इक रंग में सौ रंग जाहिर हो गए हैं तो

कितने परेशां हैं कितने तंग रहते हैं

किसी को ये कोई कैसे बताए

हवाएं और लहरें कब किसी का हुक्म सुनती हैं

हवाएं हाकिमों की मुट्ठियों में हथकड़ी में

कैद-खानों में नहीं रुकतीं

ये लहरें रोकी जाती हैं

तो दरिया कितना भी हो पुर-सुकूं बेताब होता है

और इस बेताबी का अगला कदम सैलाब होता है

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