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वीडियो एडिटर- राहुल सांपुई
कैमरा- शिव कुमार मौर्या
ये वो कुछ हेडलाइन हैं जिसमें सिर्फ यूपी पुलिस पर हुए हमले का जिक्र है. मतलब यूपी में अब 'ठोक' देने की नीति गुंडे और अपराधी भी अपना रहे हैं. महिलाओं के खिलाफ अपराध का हाल भी बुरा है. यूपी में अगर पुलिस अपनी भी सुरक्षा नहीं कर पाएगी तो आम लोग तो पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?
19 मार्च 2021 को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के 4 साल पूरे हो गए हैं. 4 साल पूरे होने के मौके पर सरकार बार-बार अपराध और अपराधियों के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति का जिक्र कर रही है. लेकिन अपराधियों से आम जनता तो दूर पुलिस भी बच नहीं पा रही है.
2 जुलाई 2020 को कानपुर में गैंगस्टर विकास दुबे को पकड़ने गए आठ पुलिस कर्मियों का शहीद होना या उससे पहले 3 दिसंबर 2018 को बुलंदशहर में कथित गौकशी मामले में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या. या अभी हाल ही में कासगंज में सिपाही देवेंद्र सिंह की हत्या का मामला हो.
अब भले ही पुलिस इन घटनाओं के बाद मुजरिमों को ‘ठोक’ दे रही हो, लेकिन सवाल जस का तस है. क्या इन सबसे क्राइम रुक जाएगा? शायद नहीं. चलिए आपको पुलिस के हालात की कुछ कड़वी सच्चाई बताते हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में साल 2017 में अपराध के 3,10,084 मामले दर्ज हुए थे, वहीं ये 2018 में बढ़कर 3,42,355 हो गए और 2019 में 3,53,131.
यूपी सरकार की दलील है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां आबादी ज्यादा है लेकिन आबादी ज्यादा है तो ज्यादा पुलिस क्यो नहीं?
संयुक्त राष्ट्र कहता है कि एक लाख की आबादी पर कम से कम 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए. यूपी में एक लाख की आबादी पर स्वीकृत पद है 182 और असल में तैनात हैं 152.
पिछले कुछ दिनों में उन्नाव से लेकर कानपुर में महिलाओं के साथ हुई बर्बरता को आंकड़े में नहीं समेटा जा सकता है. हाथरस में रेप पीड़िता की मौत के बाद रात में ही बिना उसके परिवार के सहमति शव जलाने का मामला हो या इसी साल दो मार्च की रात गोरखपुर में एक युवती से गैंगरेप मामले में पुलिस का कार्रवाई नहीं करना, और तो और एफआईआर तब दर्ज हुआ जब रेप का वीडियो वायरल हो गया और बड़े अधिकारियों को हस्तक्षेप करना पड़ा.
पुलिस सुधारों को लेकर कई कमीशन और कमेटी बनी. जैसे गोर समिति, पद्मनाभैया समिति और मलीमठ समिति. इन आयोगों और समितियों ने पुलिस रिफॉर्म को लेकर कई बातें कही हैं. यही नहीं सितंबर, 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों की आनाकानी को देखते हुए पुलिस सुधारों के लिए निर्देश जारी किये थे, लेकिन उन पर आज तक कागजी खानापूर्ति से आगे कोई बात नहीं हुई है.
लेकिन फिर भी पुलिस की सोच महिलाओं के मामले में मॉडर्न होती नहीं दिख रही है और न ही अपराध पर लगाम लगता दिख रहा है.
उत्तर प्रदेश सरकार के मुताबिक साल 2017 से लेकर अब तक यूपी पुलिस ने एनकाउंटर में 135 लोगों को मार गिराया है और 3039 अपराधी घायल हुए है. साथ ही 16661 को गिरफ्तार किया है. वहीं इन एनकाउंटर में 13 पुलिस वालों की जान गई और 1093 पुलिस वाले घायल हुए हैं.
सरकार एनकाउंटर को अपनी सक्सेस स्टोरी के तौर पर पेश करती आई है. लेकिन शायद पुलिस और सरकार एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट का बयान नहीं पढ़ पाई है. सुप्रीम कोर्ट ने Om Prakash and others v. State of Jharkhand 2012 केस की सुनवाई में कहा था,
अब पुलिस डिपार्टमेंट को आत्मंथन की जरूरत है. साथ ही पुलिस डिपार्टमेंट में खाली पदों को भरने से लेकर ट्रेनिंग, जेंडर सेंसेटाइजेशन, ओवर वर्क, पुलिस रिफॉर्म और सरकार की नहीं जनता की पुलिस बनने का वक्त है. पुलिस और राजनीतिक मैच फिक्सिंग का विकेट गिराने की जरूरत है. कानून का धौंस नहीं बल्कि कानून की ताकत बताने की जरूरत है. धर्म और जाति के आधार पर कार्रवाई की नहीं बल्कि 'सबका साथ, सबकी सुरक्षा और सबका विश्वास' के साथ काम करने की जरूरत है. नहीं तो लोग पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?
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