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AIPOC में ओम बिड़ला,धनखड़ की न्यायपालिका पर टिपण्णी 'अनुचित और निंदनीय'- पूर्व जज

राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने जयपुर में दो दिवसीय 83वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन का उद्घाटन किया.

जस्टिस गोविंद माथुर
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<div class="paragraphs"><p>AIPOC में ओम बिड़ला,धनखड़ की न्यायपालिका पर टिपण्णी 'अनुचित और निंदनीय'- पूर्व जज</p></div>
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AIPOC में ओम बिड़ला,धनखड़ की न्यायपालिका पर टिपण्णी 'अनुचित और निंदनीय'- पूर्व जज

(फोटो- क्विंट हिंदी) 

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उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ ने जयपुर में 11 जनवरी को दो दिवसीय 83वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन का उद्घाटन किया. सम्मेलन में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भी मौजूद थे.

अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों के 83वें सम्मेलन (All India Presiding Officers Conference) में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक स्वर में संसदीय कार्य में न्याय पालिका के तथाकथित हस्ताक्षेप पर तीखी टिप्पणी करते हुए यह अपेक्षा की है कि न्यायपालिका संवैधानिक मर्यादा में रहते हुए कार्य करे.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविन्द माथुर ने आपत्ति जताते हुए कहा कि,

उपराष्ट्रपति जी ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 49 वर्ष पूर्व प्रतिपादित संविधान के मूल ढांचे के सुस्थापित सिद्धांत की आलोचना करते हुए यहां तक कहा की न्यायपालिका द्वारा विधायिका के निर्णय की समीक्षा की अनुमति नहीं दी जा सकती है. अपने कटु व्यक्तव्य में उपराष्ट्रपति जी ने मुख्यतः न्यायधीशों की नियुक्ति संबंधित कानून का विशेष सन्दर्भ दिया. लगभग यही स्वर लोकसभा अध्यक्ष जी और मुख्यमंत्री जी का भी था.

ऐसा लगता है कि विधायिका अपने भीतर के सभी अन्तरविरोधों और मतभेदों को एक ओर कर पहले न्यायपालिका को विशेष रुप से न्यायपालिका में नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया को नियंत्रित करने का प्रयत्न कर रही है.

पूर्व में न्यायधीशों के नियुक्ति संबंधी कानून को बनाते समय भी विधायिका ने अप्रत्याशित एकता दिखाई थी और बगैर समुचित बहस किये एक ऐसे कानून को बनाया जो प्रत्यक्षत: न्यायपालिका की स्वायत्तता को आघात पहुंचा रहा था.

विधायिका को यह पता होना चाहिए कि हमारे संविधान में शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुये न्यायपालिका द्वारा विधायी निर्णयों की समीक्षा किये जाने के प्रावधान किये गये हैं.

अनुच्छेद 13 न्यायिक समीक्षा के लिये एक संवैधानिक आधार प्रदान करता है क्योंकि यह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को यह अधिकार देता है कि वे संविधान-पूर्व कानूनों की व्याख्या करें और यह तय करने का अधिकार देता है कि ऐसे कानून वर्तमान संविधान के मूल्यों और सिद्धांतों के साथ सुसंगत है या नहीं.

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अगर प्रावधान वर्तमान कानूनी ढांचे के साथ आंशिक या पूरी तरह से विरोधाभासी हैं तो उन्हें अप्रभावी समझा जाएगा जब तक की उनमें संशोधन न किया जाए. इसी प्रकार, संविधान लागू होने के बाद कानूनों को उनकी अनुकूलता को साबित करना होगा कि वे विरोध में नही हैं अन्यथा उन्हें भी शून्य माना जाएगा.

ऐसे में यह कहा जाना कि विधायिका द्वारा बनाये गये कानून की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है, संविधान की मंशा ही नहीं बल्कि संविधानिक प्रावधान के विरुद्ध है.

बेहतर होगा कि न्यायपालिका की संविधान प्रदत्त शक्तियों और स्वायत्तता पर चोट करने की जगह विधायिका अपनी शक्तियों का प्रयोग संविधान सम्मत कानून बनाने के लिए करे.

जहां तक संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को चुनौती देने की बात है तो यह समझ लिया जाना चाहिए कि पिछले पांच दशक में इसकी स्वीकार्यता ने संविधान और संवैधानिक मूल्यों को सशक्त ही किया है. ऐसे अनेक अवसर आये जब इसी सिद्धांत के आधार पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की गई है.

मेरी दृष्टि में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों के 83वें सम्मेलन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और राजस्थान के मुख्यमंत्री मंत्री अशोक गहलोत द्वारा न्यायपालिका पर की गई टिप्पणी पूर्णतः अनुचित और निंदनीय है.

(गोविंद माथुर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश हैं. ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए किसी प्रकार से जिम्मेदार है.)

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