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न्यायपालिका Vs कार्यपालिका: भारत में कौन कर रहा है 'लक्ष्मण रेखा' का ज्यादा पालन

CJI NV Ramana और कानून मंत्री Kiren Rijiju ने हाल ही में 'लक्ष्मण लेखा' का जिक्र किया है.

संजॉय घोष
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>न्यायपालिका Vs कार्यपालिका: भारत में कौन कर रहा है 'लक्ष्मण लेखा' का ज्यादा पालन</p></div>
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न्यायपालिका Vs कार्यपालिका: भारत में कौन कर रहा है 'लक्ष्मण लेखा' का ज्यादा पालन

(फोटो-क्विंट)

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‘लक्ष्मण रेखा’ राम के छोटे भाई द्वारा खींची गई एक सीमा है जब अपनी भाभी की जिद पर वो अपने बड़े भाई राम को दी गई- सीता की रक्षा- की प्रतिज्ञा को तोड़ते हैं और राम की तलाश में सीता को अकेला छोड़ जाते हैं. राम को सीता ने एक सोने का हिरण लाने के लिए भेजा था जिसे दरअसल असुरों के राजा ने राम का ध्यान भटकाने के लिए भेजा था ताकि वो उनकी पत्नी का अपहरण कर अपने साथ जबरदस्ती अपने साम्राज्य लंका ले जा सके. राम, लक्ष्मण को सीता की रक्षा के लिए छोड़ कर गए थे. हालांकि, जैसे ही राम ने हिरण का शिकार किया, उसने राम की आवाज में मदद के लिए आवाज लगाई. घबराई सीता ने तब लक्ष्मण को अपने बड़े भाई की मदद के लिए भेजा. जाते समय लक्ष्मण ने ये रेखा खींची थी. जब तक सीता इस रेखा के अंदर रहेंगी वो सुरक्षित रहेंगी.

तो, इतिहास ने भारत को एक ऐसा विचार दिया जो उसके बाद से सीमाओं के प्रतीक के रूप में माना गया: लक्ष्मण रेखा. इसलिए जब कुछ दिनों के अंदर ही भारत के दो स्तंभों- न्यायपालिका और कार्यपालिका से जुड़े ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग लक्ष्मण रेखा का जिक्र करते हैं तो इसकी नजदीक से जांच करना बनता है.

कार्यपालिका के पक्ष में रहने की कोशिश

हाल ही में आयोजित मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा:

“संविधान तीन अंगों के बीच अधिकारों का विभाजन प्रदान करता है और तीनों अंगों के बीच सामंजस्य बना कर काम लोकतंत्र को मजबूत करता है. अपने कर्तव्य का पालन करते समय हमें लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना चाहिए”.

इसके बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह के मामले में अपना अंतरिम आदेश दिया जिसमें कानून के तहत नए केस दर्ज करने पर रोक लगा दी, कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने कहा:

"हम एक दूसरे का सम्मान करते है. अदालत को सरकार और विधायिका का सम्मान करना चाहिए. सरकार को भी अदालत का सम्मान करना चाहिए. हमारी सीमा स्पष्ट तौर पर तय है और वो लक्ष्मण रेखा किसी के भी द्वारा पार नहीं की जानी चाहिए."

कार्यपालिका-न्यायपालिका के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के बहाने, पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ने जब से रिटायर होने के बाद जल्दबाजी में एक विधायी पद स्वीकार किया है तब से ही दोनों स्तंभों के बीच संबंध पर सबकी नजरें गड़ गई हैं.

जिस सरकार को शुरू में ही राष्ट्रीय न्यायिक जवाबदेही आयोग (National Judicial Accountability Commission) को खारिज किए जाने के रूप में न्यायपालिका का खासा झटका झेलना पड़ा, सरकार द्वारा आम राय से पारित कराए गए संशोधनों को खारिज कर दिया था, उसका प्रदर्शन इस लिहाज से बाद में बुरा नहीं रहा है.

शायद, भारत के सुप्रीम कोर्ट के दर्ज इतिहास में (आपातकाल के कुछ सालों को छोड़ कर) अदालत ने कभी भी कार्यपालिका के पक्ष में होने की इतनी ज्यादा कोशिश नहीं की है. कुछ परिस्थितियां, जिससे ऐसा निष्कर्ष निकालने पर मजबूर होना पड़ा उसकी चर्चा नीचे की गई है.

कृषि कानून से लेकर अनुच्छेद 370 तक, सरकार की आसान राह

पहला, जब सरकार न्यायिक नियुक्तियों के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (MoP) को अंतिम रूप नहीं दे सकी और इसके लिए मनमुताबिक समय ले रही है, अदालत ने एक तरह से कार्यपालिका के सामने घुटने टेक दिए हैं. न्यायिक नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों के नाम को मंजूरी में देरी को लेकर विधायिका न केवल कार्यपालिका की खिंचाई करने के बच रही है बल्कि कई मामलों में, जैसे जस्टिस कुरैशी के मामले में, ये काफी आगे बढ़कर ये सुनिश्चित कर रही है कि सरकार की संवेदनाओं को ठेस नहीं पहुंचे.

महीनों तक नियुक्तियों के मामले में अदालत को गतिरोध का सामना करना पड़ा, फिर भी, अदालत इस बात पर अडिग थी कि वो ऐसी कोई भी सिफारिश न करे जिसे कार्यपालिका के साथ टकराव के तौर पर देखा जाए.

ये माना गया कि सुप्रीम कोर्ट के लिए जस्टिस कुरैशी (जिनके आदेश के कारण मौजूदा गृह मंत्री को जेल जाना पड़ा था) के नाम की सिफारिश को सत्ता में बैठे लोग सकारात्मक रूप से नहीं लेंगे.

दूसरा, न्यायिक प्रक्रिया के तहत सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्तियों का अधिकार अपने आप तक विनियोजित कर लिया था. कार्यपालिका को सिर्फ फिर से विचार करने को कहने का अधिकार दिया गया था, अगर अदालत उसी उम्मीदवार का नाम फिर से भेजती तो कार्यपालिका के हाथ बंधे हुए थे. हालांकि, पिछले कुछ सालों में अदालत ने कई नामों को दोबारा आगे बढ़ाया लेकिन सरकार चुपचाप बैठी रही और उनपर कोई फैसला नहीं लिया गया जबकि अदालत ने इस बारे में सार्वजनिक तौर पर एक शब्द नहीं कहा. हाल ही में एनएलएस से पढ़ाई करने वाले आदित्य सोंधी ने, जिनके नाम की सिफारिश कर्नाटक हाई कोर्ट के जज के लिए दोबारा की गई थी, अपना नाम वापस ले लिया क्योंकि सरकार उनके नाम पर कोई फैसला नहीं ले रही थी.

तीसरा, वैसे मामले जो सरकार के लिए राजनीतिक तौर पर परेशान करने वाले हो सकते हैं, जैसे कि अनुच्छेद 370 का मामला और इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला, कोर्ट ने उन मामलों के जल्दी निपटारे को लेकर कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई है. ये कहने की जरूरत नहीं है कि इस देरी का फायदा सिर्फ और सिर्फ सरकार को ही हुआ है.

चौथा, वैसे मामले जिनका हल होना सरकार के लिए राजनीतिक तौर पर संवेदनशील हो- चाहे वो विवादित कृषि कानून हो या राजद्रोह कानून- कोर्ट खुद ही आगे आया है और इस तरह के कानून पर रोक तक का प्रस्ताव पारित किया गया है. सत्ताधारी पार्टी की छवि को बनाए रखने में ये काफी सहायक साबित हुआ है.

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प्रवासी मजदूर और सुप्रीम कोर्ट्र

यहां तक की ट्राइब्यूनल्स के गठन और प्रवर्तन निदेशालय के डायरेक्टर के कार्यकाल की समय सीमा बढ़ाए जाने के जैसे मामलों में भी, जहां कार्यपालिका ने कोर्ट के आदेश के बावजूद वैधानिक संशोधनों और अध्यादेशों का सहारा लेकर काम किया है, अदालत ने आश्चर्यजनक रूप से सरकार के साथ व्यवहार में अजीब सी शांति बनाए रखी है.

वास्तव में, छठे प्वाइंट के तौर पर, हाल ही में अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने असाधारण अंतर्निहित अधिकार “संपूर्ण न्याय करने के लिए” को टैक्स के एक मामले में अजीब ढंग से लागू किया और वो भी टैक्स कोड के उलट और टैक्सपेयर के खिलाफ, ये कहते हुए कि सरकार को नुकसान होगा और कई मुकदमों का सामना करना पड़ेगा.

सातवां, कोविड 19 महामारी के दौरान अदालत प्रवासी मजदूरों की गंभीर स्थिति पर सरकार के पक्ष को मानने की इच्छुक थी. सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने वाले इन असहाय कामगारों की दुर्दशा पर जनता के आक्रोश के बाद ही कोर्ट ने मामले में दखल दिया. ये बहुत देर से उठाया गया एक छोटे कदम जैसा मामला था.

सीता कौन है, राम कौन है?

कभी-कभी क्षणिक सफलता भी मिलती है और ऐसा नहीं है कि सरकार के लिए ये सम्मान और आदर बड़ी मात्रा में रहा है. उदाहरण के तौर पर केंद्रीय मंत्री के बेटे, जिस पर विरोध कर रहे किसानों को गाड़ी से कुचलने में शामिल रहने का आरोप है, की जमानत के मामले में अदालत ने इस धारणा को मजबूती के साथ दूर कर दिया कि ऊंची पहुंच वाले लोगों को आसानी से जमानत मिल सकती है. कोर्ट की कड़ाई ने ये भी सुनिश्चित किया कि सरकार आखिरकार अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में मजदूरों के लिए ई-श्रम पोर्टल बनाए. यहां तक कि पेगासस के मामले में भी अदालत ने कम से कम कार्यपालिका के सभी विरोधों को दरकिनार करते हुए एक जांच कमेटी का गठन कर दिया.

इसलिए, हमारा व्यापक नजरिया संकेत देता है कि दोनों अहम किरदार सामान्य तौर पर लक्ष्मण रेखा का सम्मान करते हैं, दरअसल न्यायपालिका ने लक्ष्मण रेखा का कुछ ज्यादा ही सम्मान किया है. अब कुछ लोग ये सवाल कर सकते हैं कि इस कहानी में सीता कौन है और रावण कौन है. ये मैं आपकी कल्पना पर छोड़ता हूं.

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