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इस बात पर बहस की जा रही है कि क्या भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने अनजाने में गुजरात के तेज तर्रार दलित नेता जिग्नेश मेवाणी (Jignesh Mevani) को हीरो बना दिया है. मेवाणी के खिलाफ दो आपराधिक मामले दर्ज करके उन्हें दूर असम में पुलिस कस्टडी में रखा गया. अब उन्हें जमानत मिल गई है.
गुजरात में साल के अंत में राज्य विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और ऐसा लगता है कि मेवाणी ‘विच हंट’ का शिकार बनाए गए हैं. दूसरी तरफ जैसा हमारी न्याय प्रणाली काम करती है, मेवाणी अगले कुछ महीनो में कानूनी दांवपेंच में ऐसे फंस जाएंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में जबरदस्त प्रचार और बीजेपी विरोधी वोट जुटाने लायक बचेंगे ही नहीं.
गुजरात के बीजेपी नेता निजी तौर पर कहते हैं कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं कि असम पुलिस मेवाणी के साथ क्या करेगी. कोकराझार के एक व्यक्ति ने, जो साफ तौर से बीजेपी का हमदर्द है, मेवाणी के एक ट्वीट के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है. मेवाणी ने पीएम मोदी की आलोचना करते हुए एक ट्वीट किया था.
वकीलों का कहना है कि अगर मेवाणी को जमानत मिलने के बाद उनके खिलाफ कोई नया आरोप नहीं दर्ज किया जाता तो भी उन्हें अपने खिलाफ दो मामलों में सुनवाई के लिए महीने में कम से कम एक बार असम जाना पड़ेगा.
इससे उनके लिए चुनाव प्रचार करना मुश्किल होगा क्योंकि उसमें रुकावट आ सकती है. लेकिन गुजरात बीजेपी में इस बात को लेकर बेचैनी है. हो सकता है कि इससे मेवाणी को नई जिंदगी मिल जाए. वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय हो सकते हैं, खासकर दलितों, आदिवासियों और शहरी युवाओं के उस वर्गों के बीच, जो सरकार से नाखुश हैं.
बीजेपी की चिंता जायज है. मेवाणी पांच साल पहले कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान के तीन स्तंभों में से एक थे. दो दूसरे थे, अल्पेश ठाकुर और हार्दिक पटेल. हार्दिक पटेल ने राज्य सरकार के खिलाफ सफल पाटीदार आंदोलन की अगुवाई की थी. कांग्रेस ने उस चुनाव में लगभग जीतकर, बीजेपी की सांसें अटका दी थीं. बीजेपी को 182 में से सिर्फ 99 सीटें मिली थीं.
साम-दाम दंड भेद का इस्तेमाल करते हुए बीजेपी ने हार्दिक पटेल को झकझोर दिया है. यह नौजवान पाटीदार नेता कांग्रेस की आलोचना कर रहा है, और बीजेपी की तारीफ. अटकलें लगाई जा रही हैं कि वह भी पाला बदलने के लिए तैयार हैं.
2017 में कांग्रेस के दो स्टार प्रचार हाशिए पर जा चुके हैं, और अब सिर्फ मेवाणी हैं जिनसे निपटना बाकी है. यह दलित नेता सैद्धांतिक रूप से बीजेपी में नहीं अट सकता. वह लेफ्टिस्ट है, आरएसएस और बीजेपी विरोधी और उग्रता से दलित-आदिवासियों के लिए न्याय और बराबरी की मांग करता है.
हालांकि वह औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल नहीं हुए हैं. वह बनासकांठा के वडनगर से निर्दलीय विधायक ही हैं लेकिन कांग्रेस के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि राहुल गांधी के आदेश पर कांग्रेस उनका मौजूदा कानूनी खर्चा उठा रही है. साफ है, कांग्रेस उस एसेट को संभाले रखना चाहती है जो 2017 के चुनाव अभियान में उसके खूब काम आया था.
मोदी और शाह की पूरी कोशिश है कि बीजेपी को इन चुनावों में साल 2002 के अपने 121 के बेस्ट स्कोर से भी ज्यादा सीटें हासिल हों. वे कांग्रेस को मिटाने के लिए व्यवस्थित रूप से काम कर रहे हैं. अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (AAP) के चलते कांग्रेस पर बुरी मार पड़ी है. AAP ने बीजेपी को भी हैरत में डाला है- पिछले साल सूरत नगरपालिका चुनावों में उसने 17 नगरसेवक सीटें जीती थीं.
लेकिन बीजेपी ने भी पूरी ताकत लगाई. अब तक AAP के 17 पार्षदों में से 14 बीजेपी में जा चुके हैं. जाहिर है, बाकी तीन भी पाला बदलने के लिए तैयार हैं, लेकिन बीजेपी ने फिलहाल अपने दरवाजे बंद रखे हैं, इस विश्वास के साथ कि वह केजरीवाल की पार्टी को चकमा देने में कामयाब हो गई है.
कांग्रेस को उम्मीद है कि विक्टिम कार्ड मेवाणी के लिए काम करेगा. उन्हें और कांग्रेस को वह सहारा मिलेगा जिसकी दोनों को जरूरत है. हाल के विधानसभा चुनावों में खास तौर से उत्तर प्रदेश में भारी जीत के बाद मोदी बेहद मजबूत दिख रहे हैं. जबकि कांग्रेस नेतृत्व के मुद्दे पर जूझ रही है, और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा हुआ हे- वे वैचारिक रूप से भौचक्के हैं.
समय बताएगा कि क्या बीजेपी ने मेवाणी मामले में कोई गलती की है या वह सचमुच उन्हें बदनाम करने में कामयाब हुई है. जैसा कि उसने दो दूसरे युवा नेताओं के साथ किया था, जिन्होंने पांच साल पहले पार्टी को लगभग गिरा दिया था.
(आरती जयरथ दिल्ली में रहने वाली एक सीनियर जर्नलिस्ट है. उनका ट्विटर हैंडिल @AratiJ है. यह एक ओपनियिन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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