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फ्रांसिसी विद्वान अर्नेस्ट रेनॉन ने आज से लगभग सवा सौ साल पहले यह कहा था कि किसी भी राष्ट्र के निर्माण में साझा सुख, साझा दुख और साझा सपनों का बहुत ज्यादा महत्व है. इन बातों का महत्व देश के नक्शे या टैक्स की राष्ट्रीय प्रणाली या झंडे या राष्ट्रगान से ज्यादा है. रेनॉन नहीं मानते कि एक नस्ल, एक भाषा, एक धर्म, साझा हित या एक भौगोलिक इलाके का होना राष्ट्र बनने के लिए काफी है. रेनॉन अपने प्रसिद्ध आलेख ‘ह्वाट इज अ नेशन’ यानी राष्ट्र क्या है में यह लिखते हैं कि साझा दुख का महत्व साझा सुख से कहीं ज्यादा है.
राष्ट्रीय स्मृति में, एक साथ दुखी होने का एहसास ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि साथ खुश होना और जश्न मनाना आसान है. राष्ट्र की रेनॉन की परिभाषा बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को बेहद प्रिय थी. इसका वे बार-बार जिक्र भी अपनी रचनाओं और संविधान सभा में करते हैं.
इस मायने में कठुआ में आठ साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या को लेकर जिस तरह से राष्ट्रीय शोक का माहौल बना, और उस शोक का विस्तार कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक नजर आया, उससे सिद्ध होता है कि भारत एक राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ चुका है.
संविधान सभा में बहस में दौरान अपने आखिरी भाषण में ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारत को बनता हुआ राष्ट्र या नेशन इन द मेकिंग कहा था. उनका कहना था कि भारत में जिस तरह के सामाजिक विभाजन हैं, उसमें लोगों के बीच बंधुत्व के भाव का विकास होना आसान नहीं होगा. यह विभाजन तमाम कारणों से और कई स्तरों पर है.
कठुआ की घटना पर शोक चौतरफा रहा. दुखी होते हुए या विरोध करते हुए किसी ने भी यह नहीं सोचा कि लड़की मुसलमान गुर्जर बकरवाल की है और हमें इस बात से क्या लेना-देना कि उसके साथ क्या हुआ है. यह मामला धर्म और जाति ही नहीं, राजनीतिक विचार और लिंग भेद की बाधाओं को भी पार कर गया.
तमाम राजनीतिक दलों और प्रधानमंत्री से लेकर सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता ने इस घटना पर दुख जताया और अपराधियों को दंडित करने की बात की. इस घटना के खिलाफ देश भर में हुए प्रदर्शनों में महिलाओं के साथ ही पुरुषों ने भी हिस्सा लिया.
कठुआ की लड़की के साथ हुए गलत को गलत मानने के मामले में राष्ट्रीय सहमति देखी गई. सिर्फ जम्मू और आसपास के इलाकों में कुछ लोग इस राष्ट्रीय सहमति के साथ नहीं थे. वे बलात्कार के आरोपियों को निर्दोष मानते थे. ऐसे विचार के साथ हुए प्रदर्शन में शामिल होने के कारण जम्मू-कश्मीर सरकार के दो मंत्रियों के इस्तीफे हो चुके हैं. ऐसा माना जा सकता है कि जम्मू इलाके में जो कुछ लोग बलात्कार के पक्ष में खड़े हैं, उनके दिमाग बुरी तरह दूषित कर दिए गए हैं.
कल्पना कीजिए कि अगर कठुआ कांड के विरोध में सिर्फ मुसलमान होते या सिर्फ कश्मीर के रहने वाले मुसलमान गुर्जर बकरवाल समुदय के लोग शामिल होते तो यह कितनी खतरनाक बात होती.
भारत में यह अक्सर होता है. अक्सर देखा गया है कि दलितों के उत्पीड़न के खिलाफ सिर्फ दलित और आदिवासियों की तकलीफ के सवाल पर सिर्फ आदिवासी बोलते हैं. हरियाणा के भगाना में उत्पीड़न की शिकार लड़कियों और उनके परिवारवालों ने कई महीनों तक दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया और उनके समर्थन में मुख्य रूप से दलित ही आए.
छत्तीसगढ़ या झारखंड के आदिवासियों का जमीन लूट के खिलाफ आंदोलन अक्सर बेहद स्थानीय होते हैं और बाकी समुदाय उन आंदोलनों में शरीक नहीं होते. अल्पसंख्यकों के सवाल भी अक्सर उनके तबकाई सवाल बनकर रह जाते हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब कश्मीर की एक बच्ची के लिए हुआ है. कश्मीर का राष्ट्र की मुख्यधारा से अलगाव में रहना एक ऐतिहासिक समस्या है. यहां यह बहस करने का कोई फायदा नहीं है कि इसकी वजह इतिहास की किन गांठों में है. इस पर अलग-अलग राय हो सकती है. लेकिन कश्मीर की एक बच्ची के लिए अगर असम से लेकर गुजरात और तमिलनाडु तक में धरना-प्रदर्शन होते हैं, तो यह एक महत्वपूर्ण बात है. कश्मीर के उन तमाम लोगों को, जो किसी भी वजह से खुद को भारत से अलग-थलग महसूस करते हैं, इन विरोध प्रदर्शनों को देखना चाहिए. कठुआ की घटना ने हमें एक राष्ट्र के नागरिक होने का एहसास दिलाया है.
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(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)
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