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BJP का पिछलग्गू बनना AIADMK के लिए हो सकता है खतरनाक

“तमिल संस्कृति सिर्फ एक द्रविड़ पार्टी के रहते ही सुरक्षित है” यह बुनियादी बात लोगों के मन में बैठी हुई है

टीएम वीराराघव
नजरिया
Published:
AIADMK को बीजेपी के पीछे लगे रहने से होगा नुकसान
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AIADMK को बीजेपी के पीछे लगे रहने से होगा नुकसान
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राजनीति अक्सर दिखावे के आसपास घूमती है. द्रविड़ राजनीति में एक क्षेत्रीय ताकत जो बेहद मजबूत हो, किसी से दबती ना हो और नई दिल्ली की सामने खड़ी रह सके, वह बुनियादी पहचान बनाती है.

चाहे सही हो या गलत, “तमिल संस्कृति सिर्फ एक द्रविड़ पार्टी के रहते ही सुरक्षित है” ये एक बुनियादी बात लोगों के मन में बैठी हुई है और राष्ट्रीय पार्टियों के सामने झुकना काफी महंगा साबित हो सकता है.

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) और ऑल इंडिया मुनेत्र कड़गम (AIADMK ) का राष्ट्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन का इतिहास रहा है. लेकिन सभी मामलों में एक बात समान थी कि ये दो बराबरी वाले दलों का गठबंधन था.

इंदिरा गांधी के साथ MGR का गठबंधन और उसके बाद अलग होना

यहां तक कि अगर क्षेत्रीय पार्टी को कोई समझौता करना भी होता था तो, जैसे डीएमके और कांग्रेस के बीच में एलटीटीई और श्रीलंकाई तमिल के लिए समर्थन के मामले में, राष्ट्रीय दल इस बात को सुनिश्चित करते थे कि लोगों की नजरों में द्रविड़ पार्टी की ताकत से समझौता ना हो. काफी पहले आपातकाल के वर्षों तक यही स्थिति थी, जब AIADMK के करिश्माई संस्थापक एमजी रामचंद्रन ने इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली नेता के साथ गठबंधन किया था.

उन्होंने इंदिरा गांधी का समर्थन किया, जबकि केंद्र सरकार ने आर्टिकल 356 का इस्तेमाल कर 1976 में डीएमके सरकार को बर्खास्त कर दिया था और आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में AIADMK ने कांग्रेस (इंदिरा) के साथ बराबरी की स्थिति में चुनाव लड़ा और राज्य की 39 में से 34 सीटों पर जीत हासिल की.

इसी चुनाव में इंदिरा गांधी को शेष भारत के राज्यों में करारी हार का सामना करना पड़ा था लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों में बड़ी जीत मिली थी.

कुछ महीनों बाद 1977 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में एमजीआर ने पराजित इंदिरा गांधी से गठबंधन तोड़ लिया. पहली बार वामपंथी पार्टियों के साथ गठबंधन कर उनके नेतृत्व में एआईएडीएम तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज हुई और 1987 में अपनी मौत तक वो राज्य के मुख्यमंत्री बने रहे.
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“तमिल मूल्यों की एकमात्र संरक्षक” के तौर पर डीएमके को देखा जाना बीजेपी के लिए क्यों एक बाधा है?

यहां तक कि 1980 के विधानसभा चुनावों में डीएमके-कांग्रेस (इंदिरा) गठबंधन भी- 1980 की शुरुआत में इंदिरा गांधी नई दिल्ली में सत्ता में वापसी की थी और एमजीआर की राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया था--एमजीआर के करिश्मे को कम नहीं कर सका. वही स्वतंत्र शक्ति जिस पर पार्टी बनाई गई थी.

इसके बाद 1 984 के चुनाव में-जो इंदिरा गांधी की हत्या के तुरंत बाद कराए गए थे- AIADMK ने फिर से कांग्रेस (आई) के साथ गठबंधन किया जिसके अध्यक्ष उस वक्त राजीव गांधी थे. हालांकि, एमजीआर उस वक्त भारत में मौजूद नहीं थे, किडनी फेल हो जाने का अमेरिका के एक अस्पताल में इलाज करा रहे थे, उनकी पार्टी ने तमिलनाडु में गठबंधन का नेतृत्व किया और अपने राज्य में राजीव गांधी के साथ बराबरी का समझौता किया.

इसी तरह, एमजीआर के निधन के बाद उनकी उत्तराधिकारी जयललिता ने कांग्रेस और बीजेपी के साथ गठबंधन किया, लेकिन ये सुनिश्चित किया कि कमान उनके ही हाथ में रहे. लोकमत से कोई समझौता नहीं किया गया.

दरअसल, ये “तमिल मूल्यों के एकमात्र संरक्षक” के तौर पर देखी जाने वाली मजबूत क्षेत्रीय पार्टी है जो कि द्रविड़ राज्य में अपनी जगह बनाने में बीजेपी और हिंदुत्व के लिए एक बड़ी बाधा है.

इसलिए, मौजूदा AIADMK नेतृत्व का भारतीय जनता पार्टी के ‘सहायक’ के तौर पर देखा जाना, जमीनी स्तर पर खतरनाक रूप से कमजोर धारणा है. AIADMK का नई दिल्ली की दया पर होना क्यों जमीनी स्तर पर पसंद नहीं किया जा रहा है.

2016 में जयललिता के निधन के बाद से, बीजेपी ने AIADMK में सत्ता संतुलन को बनाए रखा है और ये राष्ट्रीय पार्टी का समर्थन है जिसने सुनिश्चित किया है कि AIADMK विभाजित नहीं हुई है.

राष्ट्रीय पार्टी ने मुख्यमंत्री ई पलानीसामी और उप मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम के बीच शांति सुनिश्चित की है. इसके अलावा, केंद्र के प्रतिघात के डर ने टीटीवी दिनाकरण के नेतृत्व वाले अलग हुए शशिकला गुट को नियंत्रण में रखा है.

वास्तव में, आरएसएस के विचारक स्वामीनाथ गुरुमूर्ती ने सार्वजनिक रूप से सुझाव दिया था कि शशिकला गुट AIADMK -बीजेपी गठबंधन का हिस्सा होगा. यह अलग-अलग पक्षों के बीच सार्वजनिक रूप से विदित गहरी व्यक्तिगत दुश्मनी के बावजूद है और यह नई दिल्ली में सत्ता में मौजूद एक पार्टी की केवल मजबूत पकड़ है जो यह सुनिश्चित कर सकता है.

ये AIADMK नेतृत्व को नई दिल्ली की दया पर छोड़ देता है और ये पार्टी के चुनाव चिह्न दो पत्तों को को लेकर चलने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं को पसंद नहीं आ रहा है. वे एक स्वतंत्र पहचान और शक्तिशाली नेतृत्व चाहते हैं जो ‘तमिलों के आत्म-सम्मान’ की रक्षा करे.

क्यों AIADMK के पास बीजेपी के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है?

द्रविड़ आंदोलन के जनक कहे जाने वाले ईवी रामासामी, जिन्हें पेरियार के नाम से भी जाना जाता है, के खिलाफ बीजेपी और आरएसएस के पदाधिकारियों की तीखी टिप्पणी भी AIADMK की शर्मिंदगी को और बढ़ा रही है.

अतीत में, द्रविड़ पार्टियां मूल विचारधारा के खिलाफ सहयोगी राष्ट्रीय पार्टियों की ऐसी टिप्पणियों को बर्दाश्त नहीं करतीं लेकिन AIADMK नेतृत्व के पास बीजेपी के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

अंत में, जबकि कमल तमिलनाडु में दो पत्तियों की जमीनी ताकत के साथ खिलने की उम्मीद कर सकता है, राष्ट्रीय दल और उसकी विचारधारा का वजन इस क्षेत्रीय दल के लिए काफी भारी साबित हो सकता है, जिसे एक नेता की तलाश है, ऐसे जो पार्टी के संस्थापक और उसके बाद की नेता के करिश्माई कद का आधा भी हो तो चलेगा.

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