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अखिलेश के दांव से चित हुए मुलायम सिंह यादव

उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम का सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ चला है, ये बता रहे हैं आशुतोष

आशुतोष
नजरिया
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(फोटो: TheQuint)
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(फोटो: TheQuint)
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मुलायम सिंह यादव अपनी जवानी में पहलवानी किया करते थे. वैसे कहने को स्कूल में अध्यापक थे. धोबी पाट उनका खास दांव हुआ करता था? ऐसा उनकी राजनीति को देखने-परखने वाले मानते हैं. लेकिन उम्र के साथ शरीर क्षीण पड़ने लगा है. दांव उलटे पड़ने लगे हैं. बेटा बाप से ही सीख कर पटखनी देने में लगा है.

अखिलेश यादव उनके ही बेटे है. बड़े नाजो-अंदाज से उसे 2012 में सत्ता सौंपी थी. मुख्यमंत्री बनाया था. पांच साल बाप की बात मानी भी, पर अब अपने पर आ गया है. भाई-भाई साथ हैं, पर बेटा भारी पड़ रहा है. घर में ही टंटा हो गया है, वो भी तब जब चुनाव सिर पर है. अब मुलायम सिंह चाहे अखिलेश को पार्टी से भले ही निकाल दें, पर बाजी हाथ से निकल चुकी है. समाजवादी पार्टी में दो फाड़ हो गया है.

मुलायम सिंह चाहते तो ये लड़ाई टल सकती थी. समय रहते अगर वो चेत जाते, अखिलेश को उत्तराधिकारी घोषित कर देते, तो ये नौबत ही नहीं आती. उनकी गलती ये रही कि सत्ता से अलग होने का नाटक तो बखूबी किया, पर सत्ता मोह से खुद को अलग नहीं कर पाये. ये मोह उनको ले डूबा. 

पहले ये लगा कि संघर्ष भतीजे अखिलेश और चाचा शिवपाल के बीच है और संघर्ष के बीज अमर सिंह ने डाले. अखिलेश ने खुलेआम कहा कि कुछ लोग उनकी कुर्सी के पीछे पड़े हैं. उनका इशारा शिवपाल की तरफ था कि वो अमर सिंह के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाना चाहते है. यहां तक मुलायम अंपायर की भूमिका में रहे. पर न जाने क्यों और कब वो खुद खेलने लगे. और धीरे-धीरे ये स्पष्ट होने लगा कि मुलायम को अखिलेश का कठपुतली बनना नागवार गुजरने लगा है और वो उसे सबक सिखाना चाहते हैं. पर अखिलेश मानने को राजी नहीं है. उसने बगावत कर दी. अब अलग पार्टी बनायेगा.

मुलायम सिंह यादव आज अपने बेटे के रुख से हतप्रभ होंगे. गुस्से मे भी होंगे. पर वो ये भूल गये कि राजनीति में उन्होने कभी किसी को बख्शा नहीं. हमेशा अपने हितों का ध्यान रखा. अगर यकीन न हो तो सोनिया गांधी, वीपी सिंह, ममता बनर्जी और नीतीश कुमार से पूछ लीजिये.

सोनिया गांधी तब राजनीति में नई-नई ही आई थीं. सोनिया और जयललिता के मिलन के बाद वाजपेयी की सरकार गिर गई थी. महज एक वोट ने देश को एक साल में ही चुनाव के मुहाने पर ला खड़ा किया था. 1998 की वो शाम मुझे कभी नहीं भूलती, जब सोनिया गांधी मनमोहन सिंह के साथ राष्ट्रपति से मिलकर निकली थीं और ये दावा किया था कि उनके पास सरकार बनाने लायक 272 का आंकड़ा है.

मुलायम सिंह यादव ने सरकार बनाने का पूरा भरोसा दिया था. लेकिन ऐन वक्त, वो पलट गये. कांग्रेस को समर्थन देने से मना कर दिया. सोनिया की जमकर छीछालेदर हुई. उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता सबके सामने जाहिर हो गयी. राजनीति का पहला सबक सोनिया को मुलायम ने ही सिखाया कि किसी पर यकीन मत करो. तब मुलायम ने अखिलेश पर कैसे यकीन कर लिया?

लेकिन सोनिया से बहुत साल पहले जब राजीव गांधी जिंदा थे. वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे. मुलायम तब जनता दल में थे और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री. वीपी सिंह ने देवीलाल से बचने के लिये मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करके पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया था.

जनसभा को संबोधित करते समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव (फोटोः IANS)

मुलायम सिंह पूरी मजबूती के साथ मंडल के साथ साथ वीपी सिंह के साथ थे. पर जब चंद्रशेखर ने देवीलाल के साथ कांग्रेस की मदद से सरकार बनाने का फैसला किया, तो मुलायम सिंह यादव ने वीपी सिंह का हाथ छोड़ दिया, चंद्रशेखर के साथ हो लिये.

दिलचस्प बात ये है कि समाजवादी मुलायम की इसके बाद की पूरी राजनीति मंडल कमीशन और पिछड़ों की राजनीति ही रही, पर जिस वीपी सिंह की वजह से पिछड़ों को आरक्षण मिला था, उनसे मुलायम का फिर कभी मिलना नहीं हुआ. वीपी सिंह इस सदमे से कभी उबर नहीं पाये.

इसी तरह ममता बनर्जी भी मुलायम पर भरोसा कर गच्चा खा गईं. मामला राष्ट्रपति के चुनाव का था. प्रणब मुखर्जी को समर्थन का मसला था. मुलायम व ममता को एक साथ प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर प्रणब का विरोध करना था. मुलायम प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में नहीं आये. ममता अकेले पड़ गईं. बाद में मुलायम ने वादे के खिलाफ जाकर प्रणब मुखर्जी को सपोर्ट कर दिया. 

इसी तरह 2015 में बिहार चुनाव के समय नीतीश के साथ जाने का फैसला मुलायम ने किया था, पर ऐन वक्त में क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम. उन्‍होंने नीतीश के साथ खड़े होने से इनकार कर दिया. नीतीश भी सोनिया, वीपी सिंह और ममता की तरह ठगे से रह गये. ऐसे में अगर आज बेटा अखिलेश बाप मुलायम को दांव दे रहा है, तो मुलायम हतप्रभ क्यों है? अखिलेश ने साबित कर दिया है कि वो मुलायम के असली उत्तराधिकारी है.

अखिलेश उन्हीं से दांव सीखकर उन्हीं पर आजमा रहे हैं. मुलायम को उन पर गर्व होना चाहिये. पर आज वो नाराज है. खींजे हुए हैं, छटपटा रहे हैं. पार्टी हाथ से निकल रही है. उनकी राजनीति खत्म होने के कगार पर है.

मुलायम ने वो गलती की, जो हाल के दिनों में रतन टाटा ने की. रतन टाटा को लगा था कि सायरस मिस्त्री टाटा ग्रुप के चेयरमैन बनने के बाद भी उनके इशारों पर नाचेंगे. पर हुआ उलटा. साइरस स्वतंत्र होना चाहते थे. अपने हिसाब से कंपनी को चलाना चाहते थे. रतन टाटा को ये रास नहीं आया, लिहाजा उनको हटाने का उपक्रम करना पड़ा और एक अच्छी भली कंपनी की ऐसी-तैसे हो रही है. मुलायम को भी रतन टाटा की तरह टीपू (अखिलेश ) की जगह एक कठपुतली चाहिये थी. जो उनके कहने पर उठे-बैठे और जब मन हो तब उसके कान उमेठ सकें. साढ़े चार साल तक तो टीपू उनके कहने कर चलता रहा, पर अब जब उसे लग गया है कि जनता उसके साथ हो सकती है, तो उसने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया.

यूपी के सीएम अखिलेश यादव (फोटो: पीटीआई)

ये एहसास अखिलेश को 2012 के समय ही हो जाना चाहिये था. 2007 में यूपी के लोगों ने समाजवादी पार्टी की सरकार के समय की गुंडागर्दी से तंग आकर ही मायावती को पूर्ण बहुमत दिया था. जब-जब मुलायम सिंह यादव की सरकार उत्तर प्रदेश में आयी है, तब-तब कानून व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हुई. आम नागरिकों का सड़क पर चलना, महिलाओं का घर से निकलना दूभर हो जाता है. घरों-दुकानों-जमीनों पर असामाजिक तत्वों का कब्जा आम बात हो जाती है. गुंडे खुलेआम घूमते हैं, लोगों को धमकाते हैं, कत्ल होते हैं और कानून के रखवाले हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं. पुलिस राजनेताओं की गुलाम हो जाती है. उनके हाथ बांध दिये जाते हैं. 2007 मे लोगों ने कानून और व्यवस्था से तंग आकर मायावती को चुना. 2012 में मुलायम को ये बात समझ में आ गई थी. तब उन्होंने अखिलेश को आगे किया.

बीएसपी चीफ मायावती (फोटोः PTI)

अखिलेश युवा थे. पढ़े-लिखे थे. सीधे दिखते थे. मुलायम की तरह गुंडों को पालने की उनकी छवि नहीं थी. हालांकि तब भी मुलायम ने डीपी यादव जैसे माफिया को पार्टी में शामिल करने की कवायद की थी. तब चुनाव के वक्त अखिलेश ने आनन-फानन में डीपी यादव को पार्टी से बाहर कर एक मजबूत संदेश दिया था कि वो अगर मुख्यमंत्री बने तो मुलायम से अलग गुंडों की चलने नहीं देंगे. इस अकेली घटना ने अखिलेश को अपने पिता से अलग छवि दी, जिसका फायदा समाजवादी पार्टी को हुआ और पूर्ण बहुमत की सरकार बनी.

ये मतादेश अखिलेश के लिये था, मुलायम के लिए नहीं. एक चतुर राजनेता होने के नाते मुलायम को ये अनुभूति तब हो जानी चाहिये कि 1988 से चली आ रही उनके ब्रांड की राजनीति की उम्र हो चुकी है. और उनके संन्यास का वक्त आ चुका है.

अब नई पीढ़ी को नई राजनीति चाहिये जिसमें सत्ता के साथ विकास पर भी सरकार का जोर हो. नई राजनीति में उखड़ी हुई कानून व्यवस्था के लिये जगह नहीं हैं. लोग सुकून की जिंदगी चाहते हैं. जैसे पड़ोसी राज्य बिहार में लालू यादव के 'जंगलराज' से ऊब कर नीतीश को जनादेश देने का एक ही कारण है. 2015 में लालू की सीटें ज्यादा आईं पर मुख्यमंत्री नीतीश को ही मानना पड़ा, क्योंकि वोट नीतीश के नाम पर पड़े. अगर लोगों को लगता कि लालू की पार्टी का मुख्यमंत्री होगा तो फिर बिहार का परिणाम अलग होता.

मुलायम को ये एहसास तो तब हुआ था. इसलिये अखिलेश को चेहरा बनाया. वो चुनाव भी जीते. पर समाजवादी होने के बाद भी सामंतवादी मानसिकता नहीं छोड़ पाये. पीछे से कंट्रोल अपने हाथ में रखे रहे.

लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आये, उनके करीबी और उनकी मानसिकता में रचे बसे लोगों को जिसमें उनके ही भाई शिवपाल सबसे आगे हैं, फड़फड़ाने लगे. वो मुलायम की आड़ में गेम खेलने लगे. अखिलेश को मालूम है कि जब वोट उनके नाम पर पड़ेगा, तो कमान किसी और क्यों दी जाये. फिर चाहे उनके पिता और चाचा ही क्यों न हो.

मुलायम इतिहास की दिशा को बदलना चाहते हैं. वो इतिहास की विपरीत दिशा मे खड़े हैं. बेटे को पार्टी से बर्खास्त करने से कुछ नहीं होगा. उलटे सहानुभूति अखिलेश के साथ होगी. ये छोटी-सी बात मुलायम की समझ में नहीं आती. वो कहते हैं न 'विनाश काले विपरीत बुद्धि'. पुरानी राजनीति के दिन लद गये हैं. नई राजनीति में अखिलेश बीस पड़ेंगे.

मीडिया के इस युग में सहानुभूति मासूम से दिखने वाले अखिलेश के साथ होगी. मुलायम और शिवपाल को सत्ता का भूखा माना जायेगा. ये मुलायम की हार है. सूर्य अस्ताचल की ओर चल चुका है. बेटे ने बाप को चित कर दिया है. बिलकुल उसी तरह जैसे साठ के दशक में गूंगी गुड़िया सी इंदिरा गांधी ने राजनीति के खुर्राटों को चित किया था. कौन कहता है कि इतिहास खुद को नहीं दोहराता.

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(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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