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पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के ऐलान के साथ ही यह घोषणा भी सामने आई है कि एसपी और बीएसपी फिलहाल कांग्रेस से तालमेल करके चुनाव लड़ने के मूड में नहीं हैं. छत्तीसगढ़ में बीएसपी ने अजित जोगी से समझौता कर लिया है, तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में ‘तीसरे मोर्चे’ के गठन की खबर है. इन तीन राज्यों में बनने वाले समीकरणों का महत्व केवल विधानसभा चुनाव तक सीमित नहीं है.
एसपी, बीएसपी, दोनों ही का मुख्य आधार उत्तर प्रदेश में है और यूपी की भूमिका लोकसभा चुनावों में निर्णायक होने जा ही रही है. अगर कांग्रेस के साथ एसपी, बीएसपी की कुट्टी लोकसभा चुनाव तक जारी रहती है, तो बीजेपी किसी हद तक राहत की सांस ले ही सकती है.
मीडिया को तो बीजेपी ने मैनेज कर ही रखा है, चुनावों की घोषणा को लेकर चुनाव आयोग ने जो व्यवहार किया है, वह एक तरफ बीजेपी की ‘मैनेजमेंट स्किल’ जताता है. दूसरी ओर यह चिंताजनक तथ्य कि लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने अस्तित्व के कितने चिंताजनक दौर में पहुंच चुकी हैं.
वैसे तो बहुत विस्तार से इन सवालों का जबाव दिया जा सकता है. टिप्पणीकारों से कहीं अधिक स्वयं घटनाक्रम इस तरह के सवालों का जबाव पिछले साढ़े चार साल से दे रहा है. सच तो यहां तक है कि इस समय राज बीजेपी का नहीं, मोदी जनता पार्टी ( एमजेपी) का है. नीतिगत और रोजमर्रा के फैसले गंभीर विचार के बाद नहीं, तात्कालिक राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर, बल्कि व्यक्तिगत सनकों के आधार पर लिए जा रहे हैं.
नतीजे कितने भयानक हो रहे हैं, इसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि नोटबंदी का विरोध करने वाले गंभीर अर्थशास्त्रियों की चिंता के सामने हार्वर्ड बनाम हार्डवर्क के जुमले उछालने वाले और विश्वविख्यात अर्थशास्त्रियों, आर्थिक प्रशासकों के सामने मैदान में अक्षय कुमार और खली जैसे महारथी उतारने वाले महानुभाव इन दिनों नोटबंदी की 'महान उपलब्धि' का जिक्र तक नहीं करते. कोई और कर दे, तो तिलमिला जाते हैं. किसान, मजदूर, मध्यवर्गीय- गरज कि बड़े पूंजीपतियों को छोड़ समाज का हर वर्ग आर्थिक रूप से परेशान है.
भ्रष्टाचार विरोध के नारे का खोखलापन कुछ सहकारी बैंकों में नोटबंदी के बाद आई बहार से लेकर राफेल सौदे तक उजागर है. लोकपाल-लोकपाल का जाप करने वाले, अपने भक्तों द्वारा गांधीजी जैसे बताए जाने वाले अन्नाजी का कहीं अता-पता नहीं. उनके भक्तों (या प्रोमोटरों) में से कुछ इन दिनों खुद नये सिरे से अभियान चलाने पर व्यस्त हैं. फर्क यह है कि कांग्रेस सरकार ने संयुक्त समिति बना दी थी, अब बीजेपी के असंतुष्ट नेताओं के साथ मोर्चा बनाकर ही भ्रष्टाचार विरोधी योद्धाओं को काम चलाना पड़ रहा है.
बेरोजगारी के आंकड़े तक सरकार सार्वजनिक नहीं कर रही है. गंभीर समस्या को पकौड़े तलने के चुटकुले में बदला जा रहा है. हैदराबाद, जेएनयू, बीएचयू, इलाहाबाद- प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हिंसा की वारदातें हो रही हैं. चुनिंदा व्यापारी घरानों ने बैकों को घर की खेती समझ लिया है. बाजार की हालत पतली है, डॉलर के मुकाबले रुपया निरंतर लुढ़क रहा है… लेकिन उच्चतम स्तर पर गंभीर कदम उठाने के बजाय, जुमलेबाजी चालू आहे…
राफेल सौदे पर उठाए गए सवालों का जवाब मिलने का तो सवाल ही नहीं, मंत्रीगण एचएएल को नालायक सिद्ध करने में जरूर जुट गए हैं. सबसे मजेदार ये कि जिन राहुल गांधी का मजाक उड़ाते लोगों की जुबान नहीं थकती, उन्हीं को इतना प्रभावशाली भी माना जा रहा है कि वे फ्रांस के भूतपूर्व राष्ट्रपति से अपने मनमाफिक बयान दिलवा सकें.
समाज में जितनी टूटन अभी है, ईमानदारी से सोचिए, पहले कभी थी क्या? पुलिस को दी गयी एनकाउंटर की छूट की चपेट में जब तक दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुसलमान, गरीब-गुरबा आ रहे थे, तब तक ताली पीटने वाला मुखर मध्यवर्ग और उसका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लखनऊ हत्याकांड के बाद मुखर हो उठता है.
गोरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा की जा रहीं हत्याएं स्वाभाविक घटनाक्रम की हैसियत हासिल करती जा रही हैं. इन हत्याओं के आरोपियों में से कुछ तो केन्द्रीय मंत्रीजी के कर-कमलों से माल्यार्पण ग्रहण कर रहे हैं. बेहद आक्रामक और हिंसक बातें करने वाले लोग सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्रीजी के फॉलो किए जाने का गौरव प्राप्त कर रहे हैं.
विदेशनीति का आलम यह कि मालदीव से लेकर भूटान तक भारत-विरोधी भावनाएं पनप रही हैं. नेपाल चीन की ओर खिसक रहा है. चीन डोकलाम पर आंखें दिखा रहा है. प्रधानमंत्री पठानकोट हमले की जांच के लिए आईएसआई को बुला रहे हैं, बिन बुलाए पाक प्रधानमंत्री के घर पहुंच जा रहे हैं.
असम में नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर बन रहा है, बंगलादेशी “घुसपैठियों” के नाम पर तनाव का माहौल बनाया जा रहा है, दूसरी तरफ सरकारी तौर पर बंगलादेश को आश्वासन दिया जा रहा है कि कोई नागरिक वापस नहीं भेजा जाएगा.
याद कीजिए, सोनिया गांधी के बारे में एक बेहूदे बयान के लिए अटलजी ने अपने रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिंस को कैसे फटकारा था. तुलना कीजिए आज के प्रधानमंत्री और शासक पार्टी के अध्यक्ष के बयानों से. अगर यह सब चिता की बातें हैं, तो क्या केवल कांग्रेस के लिए हैं? निस्संदेह बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को उदारता का परिचय देना चाहिए. लेकिन क्या यह उम्मीद करना नाजायज है कि कांग्रेस से उदारता की मांग करने वाले दल भी कुछ दूरदर्शिता और देश-चिंता का परिचय दें.
ऐसा क्यों है कि राफेल सौदे पर कांग्रेस के अलावा बाकी लगभग सभी विपक्षी दल मुंह में दही जमाए हुए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्तमान परिस्थिति को भी सामान्य मानते हुए चुनाव के बाद बीजेपी से तालमेल के रास्ते खुले रखे जा रहे हैं? आखिरकार मायावती तो बीजेपी के सर्मथन से सरकार चला भी चुकी हैं, साल 2000 के गुजरात नरसंहार के बाद बीजेपी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में चुनाव-प्रचार भी कर चुकी हैं. इस पृष्ठभूमि में यह और भी अजीब लगता है कि बीएसपी मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की गलती बता रही है.
अव्वल तो दिग्विजय सिंह का बयान बीएसपी के फैसले के बाद आया. मान लीजिए, पहले ही आया हो, तो कांग्रेस की ओर से बातचीत तो दिग्विजय नहीं कर रहे थे. ऐसे बयानों से उत्तेजित होकर ही अगर फैसले किये जाएं, तो राजनीति बच्चों के रूठने-मनाने की सी बात हो जाएगी.
कांग्रेस का रवैया समझौता करने का दिख रहा है, समर्पण का नहीं. कांग्रेस इस समय घबराहट से नहीं, आत्मविश्वास के साथ पेश आ रही है. इसके पीछे वह फर्क है जो पिछले दो साल में राहुल गांधी के स्वभाव और तरीकों में आया है. वे वरिष्ठ नेताओं के साथ परस्पर विश्वास के संबंध बनाने में सफल हुए हैं.
राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट एकता के संदेश दे रहे हैं, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया. दिग्विजय सिंह चुप रहने पर या न्यूनतम बोलने पर मजबूर कर दिये गए हैं. यह बात राहुल गांधी के हालिया मध्य प्रदेश दौरे में और भी साफ तौर से उभर कर आई है. राहुल गांधी के व्यवहार से जाहिर है कि मूल समस्या वे समझ रहे हैं, और वह है बीजेपी द्वारा प्रस्तावित और
मीडिया से जरिए प्रभावी बनाए गए नैरेटिव के विकल्प का निर्माण और उसे लोकप्रिय बनाना. इस काम के लिए कांग्रेस को गांधी तक ही नहीं, नेहरू और पटेल तक व्यवस्थित रूप से वापस जाना होगा. यह काम चुनाव-प्रक्रिया में भी होगा, उसके बाद भी. इतना स्पष्ट है कि इस काम में कांग्रेस को अपने अनुभवी, प्रतिबद्ध नेताओं, कार्यकर्ताओं पर ही निर्भर करना होगा, उन फैंसी लोगों पर नहीं जिनका कांग्रेस से इतना ही लगाव है कि इसके जरिए वे अपने कार्यक्रम, अपनी फैंटेसियां पूरी कर सकें.
इस वक्त कांग्रेस पुनर्जीवन प्राप्त करने की राह पर है. सरसंघचालक संघ को ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ की हवाई से दूर करना भलमनसाहत नहीं, सोची-समझी राजनीति थी. बीजेपी (बल्कि एमजेपी) ने जिस तरह की खाइयां समाज में पिछले कुछ बरसों में पैदा की हैं, उन्हें ध्यान में रखे तो सरसंघचालक की चिंता समझ में आती है. कल को कांग्रेस फिर से ताकतवर हो गयी तो? गुजरात और कर्नाटक के संकेतों को उपेक्षा टीवी स्टूडियो वीर कर सकते हैं, मोहन भागवत नहीं.
बहरहाल, सवाल यही है कि क्या बीजेपी को सत्ता हटाना जरूरी राजनीतिक कार्यक्रर्म है? इस कार्यक्रम की सफलता के लिए बीजेपी -विरोधी दलों का गठबंधन अनिवार्य है. लेकिन इन विरोधी दलों की नजर में, ऐसे गठबंधन की सफलता के लिए कांग्रेस अनिवार्य है या नहीं?
(लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल क्विंट हिंदी के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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