Home Voices Opinion क्या कोरोना से जंग में भारतीय सेना गेमचेंजर साबित हो सकती है?
क्या कोरोना से जंग में भारतीय सेना गेमचेंजर साबित हो सकती है?
भारतीय सेना की तैनाती का लक्ष्य मनोवैज्ञानिक भी है- कि लोगों को लगे कि सरकार हर संभव प्रयास कर रही है.
कुलदीप सिंह
नजरिया
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(प्रतीकात्मक तस्वीर: PTI)
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30 अप्रैल को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सशस्त्र सेनाओं को कोविड-19 मरीजों की सहायता के लिए इमरजेंसी फाइनेंशियल पावर्स(EEPs) दे दिए. EEPs के तहत प्रदान की गई शक्तियां 3 महीने (1 मई से 31 जुलाई) के पीरियड के लिए दी गई हैं. यह वैसी ही और उनसे ज्यादा शक्तियां हैं ,जैसी पिछले सप्ताह भारतीय सशस्त्र सेना के मेडिकल अफसरों को दी गई थी .
ऐसी ही शक्तियां पिछले साल दी गई थी ताकि सेना क्वारंटाइन सुविधाएं/अस्पताल बना और संचालित कर सके. साथ ही वह उपकरणों/ आइटम्स /मटेरियल /स्टोर को खरीद या मरम्मत कर सके. इसके अलावा भारत में फैले कोविड-19 महामारी को रोकने के लिए प्रयासों में जरूरी विभिन्न सेवाओं और कार्यों को उपलब्ध करा सके.
यह जाहिर है कि सरकार ने कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर को ना पहचाना और ना ही उसके लिए तैयारी की. अब यह महामारी पूरे देश में पैर पसार रही है
29 अप्रैल को प्रसिद्ध सर्जन डॉ. देवी प्रसाद शेट्टी ने यह अनुमान लगाया की महामारी आगे और विकराल ही होगी, भारत को अगले कुछ सप्ताहों में अतिरिक्त 5 लाख ICU बेड्स, दो लाख नर्सों और डेढ़ लाख डॉक्टरों की जरूरत होगी. अब कि जब सिविलियन मेडिकल सुविधाएं पहले से ही ओवरलोडेड और पूरी क्षमता से काम कर रही है, नेताओं ने उस कमी को पूरा करने के लिए भारतीय सेना की ओर देखा है.
सशस्त्र सेनाओं को पहले क्यों नहीं बुलाया गया
लोग यह प्रश्न कर रहे हैं कि सशस्त्र सेनाओं को पहले क्यों नहीं बुलाया गया? इसके पीछे ठोस वजह थी .सशस्त्र सेना का प्रमुख दायित्व भारत को बाहरी खतरों बचाना और आक्रमणों से उसकी रक्षा करना है.
सीमा की अस्थिर चुनौतियों के बीच सेना को ऐसे आकस्मिक संकट में किस हद तक शामिल करना है ,यह उच्च स्तरीय विचार विमर्श का विषय है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि धूर्त दुश्मन आसानी से भारतीय सेना के आंतरिक प्रतिबद्धताओं में तैनाती के कारण उपजे ऑपरेशनल क्षमता में कमी का फायदा उठा सकता है (2020 की शुरुआत में भारतीय सेना ने महामारी के मद्देनजर लद्दाख में अपने बॉर्डर एक्सरसाइज को रद्द कर दिया था- और मई 2020 में PLA ने अतिक्रमण कर लिया)
भाग्यवश सीमा पर चुनौतियां अब कम है- चीन के साथ टकराव अभी स्थिर है और उसने मदद की पेशकश भी की है. पाकिस्तान के साथ LOC पर सीजफायर है.
मिलिट्री को संकट की स्थिति में त्वरित मोबिलाइजेशन करने की ट्रेनिंग मिली होती है. उनके पास विशाल अनुशासित,संगठित मैनपावर है. इसके साथ मैकेनिकल उपकरण, शानदार संचार और उनमें जल्दी से स्थिति को लेकर जागरूक करने की क्षमता है
मेडिकल इमरजेंसी में, जैसा कि हम अभी झेल रहे हैं, वे कई तरह से मदद कर सकते हैं -जैसे अस्थाई अस्पताल/ सेंटर बनाने में ,खाना-पानी उपलब्ध कराने में और लॉजिस्टिक सुविधा उपलब्ध कराने में जिसमें मेडिकल सप्लाई के अलावा मरीजों को जमीन, आकाश, पानी के रास्ते ले जाना शामिल है. रक्षा उत्पादन यूनिट को जंग के सामान की जगह महामारी से लड़ने के लिए आवश्यक उत्पादन में लगाया जा सकता है.
बावजूद इसके इस आकस्मिक महामारी में सेना क्या कर सकती है, इसकी भी एक सीमा है. इसके अलावा उनके तैनाती का लक्ष्य मनोवैज्ञानिक भी है- कि लोगों को लगे कि सरकार हर संभव प्रयास कर रही है.
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तथ्य यह है कि फंड, वित्तीय शक्ति और संबंधित अधिग्रहण शक्ति महामारी में विश्वसनीय रेस्पॉन्स के लिए जरूरी है, लेकिन वह जादुई नहीं है- कि EEPs की मंजूरी मिल गई और अब हमारे पास क्षमता है .इसलिए EEPs क्या कर सकती है उसके विश्लेषण के लिए यह दो बात:
मेडिकल केन्द्रों को आवश्यक मात्रा में मेडिकल उपकरण और दवाइयों के साथ सेट करने और संचालन योग्य बनाने में वक्त लगेगा. कुछ स्वयंसेवक संगठनों द्वारा बनाए गए केंद्र में हम देख सकते हैं कि एक बड़ा हॉल ,बेड,एक कुर्सी के साथ, पानी के बोतल है .लेकिन वहां इलेक्ट्रिक फिटिंग, मेडिकल उपकरणों के स्टैंड ,ऑक्सीजन लाइन और बाथरूम कहां हैं? क्या एक मरीज ,जो ऑक्सीजन पर है ,उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह दिन में 4-6 बार ऑक्सीजन निकालकर लंबी दूरी तय करने के बाद बाथरूम जाएगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि दवाइयों, उपकरणों और अन्य जरूरी चीजों की घोर कमी है. इसीलिए EEPs तभी प्रभावी हो सकता है जब आंतरिक उत्पादन में तेजी हो या आयात द्वारा ये चीजें उपलब्ध हो. अगर यह होता है तो महामारी की दूसरी लहर, जिसका पीक आना अभी बाकी है,में सेना द्वारा क्षमता प्रसार से आने वाले सप्ताहों और महीनों में कई जानें बचाई जा सकती है.
अभी मौजूदा सिविल मेडिकल स्टाफ ,पिछले साल से ही महामारी से लड़ रहे हैं. वे तनाव में है, थक गए हैं और संक्रमित हैं. सेना की मेडिकल सेवाएं भी अपने अधिकतम क्षमता के साथ काम कर रही हैं.वे मौजूदा (अब ओवरलोडेड) मिलिट्री मेडिकल केंद्रों को संभाल रही है. एक मौलिक दिक्कत यह है कि पिछले दशकों में हमने, विशेषकर भारतीय आर्मी में, शक्ति बढ़ाने के चक्कर में स्वास्थ्य तंत्र को कमजोर कर दिया है. वक्त के साथ हमने अपने अस्पतालों में काम चलने लायक कर्मचारी छोड़े हैं .इसके अलावा मिलिट्री हॉस्पिटल की तैयारी, शांति के वक्त- एक स्वस्थ जनसंख्या (सैनिक और उसका परिवार) के इलाज के लिए और जंग के समय -अवसाद, जंगी चोट के इलाज के लिए ही होता है. पर उनकी तैयारी संक्रमण संक्रामक बीमारी के लिए नहीं है. इसके अलावा आम सैनिक सिर्फ प्राथमिक चिकित्सा के योग्य हैं. उनको हम विशेषज्ञ सहायक के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकते. इसलिए अस्पतालों और ऑक्सीजन के बाद सबसे बड़ी चुनौती होगी डॉक्टरों ,नर्सिंग स्टाफ तथा मेडिकल सहायकों की (अंतिम अंग के महत्व को हम कम आंकते हैं).
इसके बावजूद सशस्त्र सेना महामारी के खिलाफ जंग में योगदान कर सकती है.
अगर सेना अपने सारे मेडिकल स्टाफ को तैनात कर दे, रिटायर हो चुके मेडिकल स्टाफ को वापस बुला ले, फिर भी यह काफी नहीं होगा .क्योंकि हर नए केंद्र पर अलग-अलग शिफ्टों में काम करने की जरूरत होगी .मेडिकल स्टाफ की इस कमी को कैसे पूरा किया जाएगा इसकी स्पष्टता नहीं है.
इसके बावजूद सेना इस जंग में भूमिका निभाएगी .अंत में तीन पहलुओं का उल्लेख होना चाहिए:
सेना के जवान जैसे जीते हैं( बैरक में आसपास रहना), खाते हैं (एक साथ डायनिंग हॉल में), रोजमर्रा की चीजें को खरीदते हैं (थोक में) ,कहीं आते -जाते हैं और वहां बाथरूमों की उपलब्धता-यह सारी स्थिति महामारी को यहां फैलाने के लिए पर्याप्त है .1918-19 के स्पेनिश फ्लू ने प्रथम विश्व युद्ध से ज्यादा संख्या में अमेरिकी सेनाओं की जान ली थी. इसलिए CAPF को शामिल करने की जरूरत है ,जो बनने वाले केंद्रों पर साधारण और रूटीन ड्यूटी संभाल सके. यह सुनिश्चित करेगा कि लड़ने वाली पूरी टोली जोखिम में नहीं है और उसकी संचालन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ रहा है.
मौजूदा मिलिट्री अस्पताल कार्यरत और रिटायर स्टाफ के लिए ही हो. पुराने सिपाहियों को अस्पतालों में जगह ना मिले और उससे उनकी मौत हो जाने पर कार्यरत सैनिकों पर गलत प्रभाव पड़ेगा. क्योंकि अभी कार्यरत कई सैनिक पीढ़ियों से सेना में है और कुछ को लगेगा कि उनका संगठन उनकी उपेक्षा कर रहा है .
सरकार तुरंत और तेजी से अपनी क्षमता प्रसार पर ध्यान दें. अभी तो यही लगता है कि जागरूकता और चिंता की कमी है और सरकार नहीं मान रही की स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा राष्ट्र की नींव है. यह मजबूत अर्थव्यवस्था की ओर जाने का रास्ता है. स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा को नजरअंदाज करके राज्य की शक्ति को बढ़ाना खुद को हराने जैसा है .
(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है.यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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