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जुबैर से पहले किसी और गिरफ्तारी पर अर्नब गोस्वामी का मामला क्यों याद नहीं आया?

कप्पन, फहद शाह, तीस्ता, किसी की गिरफ्तारी के वक्त यह नहीं सोचा गया कि प्रक्रिया ही सजा बन रही है

मेखला सरन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>सुप्रीम कोर्ट ने ऑल्ट न्यूज के सह संस्थापक मोहम्मद जुबैर को अंतरिम जमानत दे दी है</p></div>
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सुप्रीम कोर्ट ने ऑल्ट न्यूज के सह संस्थापक मोहम्मद जुबैर को अंतरिम जमानत दे दी है

Image- The Quint 

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सुप्रीम कोर्ट ने ऑल्ट न्यूज के सह संस्थापक मोहम्मद जुबैर(Mohammad Zubair) को अंतरिम जमानत दे दी है, और इस समय हमें शीर्ष अदालत के उस फैसले की याद आ रही है, जो उसने 2020 में अर्नब गोस्वामी मामले में सुनाया था. दो साल पहले गर्मियों के दिन थे, जब मशहूर टीवी न्यूज एंकर अर्नब गोस्वामी को खुदकुशी के लिए उकसाने के एक मामले में जमानत दी गई थी

उस समय पूरे देश ने उस फैसले पर तालियां बजाई थीं. बहुत से वकीलों और लीगल कमेंटेटर्स ने इसे प्रेस की आजादी और नागरिक स्वतंत्रता की जीत बताया था. इसकी वजह यह भी थी कि-

सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में अर्नेश कुमार दिशानिर्देशों को दोहराते हुए कहा था कि कानून प्रवर्तन करने वाली एजेंसियों को गिरफ्तारियों में संयम बरतना चाहिए. इस तरह शीर्ष अदालत ने नागरिक स्वतंत्रता को बरकरार रखा था और प्रेस की आजादी की वकालत की थी.

अब गौर कीजिए कि रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी को रिहा करते हुए अदालत ने क्या-क्या कहा था:

  • "विस्तृत श्रेणी की अदालतों- जिला अदालत, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि आपराधिक कानून नागरिकों के चुनिंदा उत्पीड़न का हथियार न बने"

  • "अदालतों को दोनों तरफ सजग रहना चाहिए- एक तरफ आपराधिक कानून के उचित प्रवर्तन को सुनिश्चित करने की जरूरत है, और दूसरी तरफ यह सुनिश्चित भी किया जाना चाहिए कि कानून लक्षित उत्पीड़न का एक बहाना न बने"

  • "हमारी अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे नागरिकों की स्वतंत्रता को बचाने का काम करें. किसी को एक दिन के लिए भी उस स्वतंत्रता से वंचित करना बहुत बड़ी बात है”

  • "भारत की स्वतंत्रता तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक पत्रकार प्रतिशोध के डर के बिना सत्ता से सच बोल सकते हैं"

  • "...अगर एक पत्रकार के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज होती हैं, उनकी सुनवाई, उपाय के लिए उसे कई राज्यों और क्षेत्राधिकारों में जाना पड़ता है, उसके खिलाफ एक ही आधार पर एफआईआर और शिकायतें दर्ज होती हैं, तो उसकी स्वतंत्रता के उपयोग पर बहुत अधिक असर होता है. इससे नागरिकों की स्वतंत्रता प्रभावित होगी, वे देश के शासकीय मामलों को नहीं जान पाएंगे. पत्रकार की अधिकारों का भी हनन होगा. वे समाज को सूचित नहीं कर पाएंगे.”

तो, इसके बाद किस बात की उम्मीद की जाएगी... देश भर में भेदभावपूर्ण तरीके से गिरफ्तारियों पर रोक लग गई होगी, मेजिस्ट्रेट कानून प्रवर्तन करने वाले अधिकारियों की कारस्तानियों को गंभीरता से लेने लगेंगे, पत्रकार इस खौफ से आजाद होंगे कि अगर वे कुछ लिखते-रिपोर्ट करते हैं तो उन्हें अदालती मामलों का सामना नहीं करना पड़ेगा, और हर व्यक्ति को पेशेवर स्वतंत्रता मिलने लगेगी. है ना?

गलत.

अर्नब गोस्वामी मामले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, हेमंत गुप्ता और अजय रस्तोगी ने जो सब कहा, वह भी उन तमाम ऐतिहासिक फैसलों की फेहरिस्त में शामिल हो गया जिन्हें मेजिस्ट्रेट्स और कानून प्रवर्तन करने वाली एजेंसियों ने भुला दिया है. अर्नेश कुमार वाला मामला भी इन्हीं में से एक है. इस बात पर मुहर लगाने वाले तमाम उदाहरण सामने हैं.

जिन मामलों में अर्नब गोस्वामी फैसला लागू हो सकता था, लेकिन हुआ नहीं

उत्तर प्रदेश से लेकर कश्मीर तक, सिद्दीकी कप्पन से लेकर सजाद गुल तक- देश में ऐसे कितने ही पत्रकार हैं, जो तरह-तरह के मामलों में कालकोठरियों में बंद हैं. इनमें से कई को गैरकानूनी गतिविधि निवारण कानून के तहत जेलों में रखा गया है.

अभी पिछले ही महीने गुजरात क्राइम ब्रांच ने एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ को गिरफ्तार किया गया है. वह भी सुप्रीम कोर्ट के उनकी याचिका को खारिज करने के चौबीस घंटे के भीतर. और गृह मंत्री अमित शाह की अपमानजनक टिप्पणी के कुछ ही घंटों बाद. सुप्रीम कोर्ट उनकी याचिका को खारिज करते हुए उसे ‘कुटिल चाल’ कह चुका है. तीस्ता को उनके मुंबई स्थित घर से उठाया गया था.

जिस एफआईआर के आधार पर तीस्ता को हिरासत में लिया गया, उसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ टुकड़े शामिल हैं. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में तीस्ता का नाम सीधे-सीधे नहीं लिया है.

इत्तेफाक से इस याचिका को मुख्य रूप से जकिया जाफरी ने दायर किया था जिनके पति एहसान जाफरी की दंगों में हत्या कर दी गई थी. याचिका में विशेष जांच दल की उस रिपोर्ट को चुनौती दी गई थी जिसमें 2002 के दंगों में प्रधानमंत्री (और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री) नरेंद्र मोदी और कई दूसरे लोगों को क्लीन चिट दी गई थी.

तीस्ता जकिया जाफरी के साथ सह याचिकाकर्ता हैं और इसमें दो दूसरे लोग भी शामिल हैं. तीस्ता को भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 468 (धोखाधड़ी के मकसद से जालसाजी) और सेक्शन 194 (मृत्युदंड योग्य अपराध के लिए दोष सिद्ध कराने के आशय से झूठे सबूत देना या गढ़ना) के तहत गिरफ्तार किया गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब गोस्वामी फैसले में कहा था: "एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता से वंचित करना बहुत बड़ी बात है." सीतलवाड़ एक महीने से ज्यादा समय से सलाखों के पीछे हैं.

इसी तरह, अर्नेश कुमार दिशानिर्देशों, अर्नब गोस्वामी फैसले और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को हफ्तों तक सलाखों के पीछे रखा गया, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार उनकी रिहाई सुनिश्चित नहीं की. उनके सहयोगी नलिन यादव को तो उससे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा, जबकि उनका कसूर सिर्फ इतना था कि वह मुनव्वर फारूकी की हिमायत कर रहे थे.

मोहम्मद जुबैर का मामला इस बात का हालिया उदाहरण है कि भारतीय अधिकारी असंतुष्टों को गिरफ्तार करने के लिए कितने उत्साहित रहते हैं. इस फैक्ट चेकर को कितने ही जटिल मामलों के जंजाल में घसीट लिया गया. हर मामला उनके ट्विट से जुड़ा था. सभी की विषयवस्तु एक ही थी और सभी में बड़े बड़े झोल थे.

अर्नब गोस्वामी श्रृंखला की एक और कड़ी- जुबैर

अगर सुप्रीम कोर्ट ने जुबैर को अंतरिम जमानत न दी होती और उनकी आजादी की हिमायत न की होती तो जुबैर अब भी सलाखों के पीछे होते. उत्तर प्रदेश की अदालतों से तो उन्हें जमानत मिलने वाली नहीं थी.

अगर वह सलाखों के पीछे नहीं होते, तो भी शायद उन्हें ट्वीट करने से तो रोक दिया जाता- सुप्रीम कोर्ट की एक वेकेशन बेंच ने एक मामले में उन्हें अंतरिम जमानत देते हुए यह शर्त लगाई भी थी.

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लेकिन सुप्रीम कोर्ट की इस रेगुलर बेंच ने ऐसा नहीं किया. उसने न केवल जुबैर को अंतरिम जमानत दी, बल्कि सामूहिक रूप से जांच के लिए सभी मामलों की दिल्ली ट्रांसफर कर दिया, उन्हें कई राज्यों की कई अदालतों के चक्कर काटने से बचा लिया और ट्वीट करने-लिखने के उनके हक को बरकरार रखा. इसके अलावा अपने फैसले में वही बात दोहराई जोकि अर्नब गोस्वामी मामले में कहा था:

"आपराधिक कानून और इसकी प्रक्रियाओं को उत्पीड़न का एक जरिया नहीं बनाया जाना चाहिए."

बेंच ने यह भी साफ किया कि: "चूंकि याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायतें सिर्फ इसलिए की गई थीं क्योंकि उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट किया था, इसलिए उन्हें ट्वीट करने से रोकने के लिए एक व्यापक अग्रिम आदेश नहीं दिया जा सकता है."

इसके अलावा बेंच का कहना था: "ऐसी शर्त लागू करना याचिकाकर्ता के खिलाफ एक गैग ऑर्डर के बराबर होगा. गैग ऑर्डर का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत बुरा असर होता है."

और फिर भी...

अगर अर्नब गोस्वामी फैसला संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 का ‘एलिस इन द वंडरलैंड’ है तो मोहम्मद जुबैर पर फैसला (इत्तेफाक से इन दोनों मामलों की बेंच में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ आसीन थे) ‘थ्रू द लुकिंग ग्लास’ है. एक फंतासी है तो दूसरा हकीकत. शायद ब्रिटिश लेखिका लुइस कैरोल ने छह साल के अंतराल में इन दोनों कथाओं को लिखते वक्त कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी मिसाल इस तरह ली जाएगी. एलिस की फंतासी की दुनिया, आखिरकार हकीकत की जमीन पर इस तरह उतारी जाएगी.

जबकि अर्नब और जुबैर, दोनों के मामले एक सरीखे नजर आते हैं, लेकिन अगर पहला न होता तो शायद दूसरा भी न होता. पर भी यह समझ नहीं आता कि जुबैर का मामला अपनी तरह का पहला मामला क्यों है जिसमें एक स्वतंत्र पत्रकार को अर्नब मामले से फायदा हो रहा है. बाकी के मामलों में अर्नब मामले को क्यों याद नहीं किया गया.

मतलब, मुझे याद है कि हाल के दिनों में कितने ही पत्रकारों को सलाखों के पीछे डाला गया है. उन पर एफआईआर लगाई गई हैं.

मुझे कश्मीर वाला के एडिटर फहद शाह अच्छी तरह याद हैं, और यह भी याद है कि उन्हें किस तरह गिरफ्तार किया गया और कानूनी प्रक्रिया ने कैसे काम किया. ठीक जुबैर की ही तरह. पहले समन किया गया, फिर एक एफआईआर के तहत गिरफ्तारी हुई, फिर जब उन्हें पहले मामले में जमानत मिलने ही वाली थी, तो दूसरे मामले में गिरफ्तार किया गया, फिर एक के बाद एक मामला और नए आरोप लगाए गए- मामले पर मामला- परत दर परत, जैसे केक पर परतें चढ़ाई जाती हैं. ज्यादातर मामले उनकी अभिव्यक्ति की आजादी और खबरें देने के उनके हक से जुड़े हुए थे. और फहद शाह अब भी जेल में हैं.

ऐसे में एक सवाल कौंधता है. अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन दो मामलों- अर्नब और जुबैर- में एक सरीखा नहीं होता तो क्या जुबैर को जमानत मिलती? क्या शीर्ष अदालत, बाकी अदालतों की तरह उस मामले पर फैसला सुनाती- क्या अर्नब गोस्वामी की आजादी की तरह जुबैर की आजादी का सवाल जिंदा रहता- या सुप्रीम कोर्ट ने जिन सिद्धांतों को याद दिलाया था, उन्हें भुलाया दिया जाता—

कि प्रक्रिया को ही सजा नहीं बनना चाहिए. कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कानून लोगों के उत्पीड़न का जरिया न बने. कि यह भी उतना ही जरूरी है, जितना यह कि आपराधिक कानून की उचित तरीके से लागू किया जाना चाहिए.

और यह भी, कि आजादी पर, “चुनींदा लोगों का ही हक है.”

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