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अरुंधति रॉय पर 13 साल बाद मुकदमा चलाना कानून और प्रक्रिया पर सवाल उठाता है

दिल्ली के उपराज्यपाल ने अरुंधति रॉय और कश्मीर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर शौकत हुसैन के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है

नवेद महमूद & आयुषी शर्मा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>अरुंधति रॉय</p></div>
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अरुंधति रॉय

(फोटो- अलटर्ड बाई क्विंट हिंदी)

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हाल ही में, दिल्ली के उपराज्यपाल (LG) ने प्रसिद्ध उपन्यासकार अरुंधति रॉय (Arundhati Roy) और कश्मीर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर शौकत हुसैन के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी.

अरुंधति रॉय और शौकत हुसैन पर 13 साल पहले दिल्ली में एक कॉन्फ्रेंस में 'भड़काऊ' भाषण देने का आरोप है.

LG ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153A, 153B और 505 के तहत दोनों आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी है, जो दर्शाता है कि दोनों पर पहली नजर में मामला बनता है.

आरोपियों पर IPC की धारा 124A के तहत राजद्रोह के अपराध का भी आरोप लगाया गया है. लेकिन पिछले साल सभी राजद्रोह के मुकदमों पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखते हुए इसकी मंजूरी नहीं दी गई है.

क्या आरोप हैं?

अक्टूबर 2010 में, राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए बनी एक समिति द्वारा एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया था. यहां अरुंधति रॉय और शौकत हुसैन ने भाषण दिए थे. इसके बाद एक सामाजिक कार्यकर्ता ने शिकायत दायर कर आरोप लगाया गया था कि ये भाषण देशद्रोही और भड़काऊ प्रकृति के थे.

पुलिस ने शुरू में मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया और कहा कि आपराधिक इरादे की कमी के कारण कोई अपराध नहीं बनता है. हालांकि, मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश का पालन करते हुए, भाषण देने के एक महीने बाद FIR दर्ज की गई थी.

IPC की धारा 153A, 153B और 505 के तहत मामला दर्ज करने का अर्थ है कि पुलिस का आरोप है कि आरोपियों के भाषणों ने विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा दिया और सार्वजनिक उपद्रव को उकसाया.
  • IPC की धारा 153A ऐसे भाषण से संबंधित है जो धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देता है.

  • IPC की धारा 153B किसी भी धार्मिक, क्षेत्रीय, नस्लीय आदि समूह के सदस्यों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने या नागरिकों के कुछ समूहों को अधिकारों से वंचित करने की वकालत करने वाले किसी भी भाषण को अपराध घोषित करती है जो राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक है.

  • IPC की धारा 505, किसी वर्ग या समुदाय को किसी अन्य वर्ग या समुदाय के खिलाफ अपराध करने के लिए उकसाने के इरादे से किए गए भाषण से संबंधित है.

क्या भाषण सचमुच भड़काऊ थे?

कॉन्फ्रेंस में दिए गए भाषण निश्चित रूप से आरोप-प्रत्यारोप वाले और राजनीतिक प्रकृति के थे. ये भाषण उस समय दिए गए थे जब 2010 की गर्मियों में जम्मू और कश्मीर में गंभीर सार्वजनिक व्यवस्था की गड़बड़ी सामने आई थी.

लेकिन IPC की धारा 153A, 153B और 505 के तहत अपराध के रूप में योग्य होने के लिए, आरोपियों का इरादा सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने का होना चाहिए और भाषण में हिंसा भड़काने की प्रवृत्ति होनी चाहिए. हिंसा भड़काने का इरादा सक्रिय होना चाहिए और केवल विचारों की अभिव्यक्ति से मामला नहीं बनता.

दरअसल, बलवंत सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1995) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "अव्यवस्था पैदा करने या लोगों को हिंसा के लिए उकसाने का इरादा IPC की धारा 153A के तहत अपराध की अनिवार्य शर्त है और अभियोजन पक्ष को सफल होने के लिए आपराधिक इरादे के अस्तित्व को साबित करना होगा."
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अमीश देवगन बनाम भारत संघ (2020) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 153A और 505 में मौजूद 'प्रमोट करना', 'संभावित/लाइकली' और 'बनाता/क्रिएट' शब्दों की जांच की. यह देखा गया कि केवल किसी तथ्य का वर्णन, या किसी अन्य व्यक्ति के दृष्टिकोण या कार्यों की आलोचना करते हुए कोई राय देना इन शब्दों के दायरे में नहीं आता. अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि इन धारा के तहत अपराध के लिए वक्ता द्वारा दर्शकों को 'सक्रिय रूप से उकसाने' की अनिवार्य शर्त पूरी की जानी चाहिए.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में अनुचित रूप से कटौती नहीं की जाए, अदालतों ने भी इन प्रावधानों को सावधानीपूर्वक लागू करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है. इसलिए, धारा 153A के तहत किसी भी अपराध के साबित होने के लिए 'हिंसा भड़काने की प्रवृत्ति' का प्रश्न अहम हो जाता है.

राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था पर सीधा प्रभाव स्थापित करने की आवश्यकता को दोहराते हुए, केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 505 के दायरे को स्पष्ट शब्दों में परिभाषित करने का प्रयास किया है.

छेड़छाड़ की गई सीडी, गायब फाइलें और एक फरार जांच अधिकारी

इस मामले में सख्त कठोरता और यह निर्धारित करने की जटिलता थी कि वास्तव में अपराध किए गए भी हैं या नहीं. इसमें बावजूद इस मामले में जिस तरह से जांच की गई है, इस पर भी गंभीर चिंताएं हैं.

2010 में शुरू हुई जांच में वस्तुतः कोई प्रगति नहीं देखी गई- भाषण वाली सीडी में छेड़छाड़ करने और फाइलें गायब होने के आरोप लगा. इतना ही नहीं जांच अधिकारी की गैर-उपस्थिति के कारण उनके खिलाफ वारंट जारी हुआ.

तथ्य यह है कि पिछले एक दशक से अधिक समय से ठंडे बास्ते में पड़ा यह मामला अचानक फिर से सामने आ गया है, इस वजह से इसके पीछे की मंशा पर सवाल उठाता है- खासकर जब इन प्रावधानों का अक्सर लोगों को डराने और असहमति को दबाने के लिए दुरुपयोग किया जाता है.

अक्सर दुरुपयोग और गलत तरीके से लागू होने वाले प्रावधान

हाल के वर्षों में, लोगों को अपनी राय व्यक्त करने या यहां तक कि चुटकुले बनाते के बाद शत्रुता को बढ़ावा देने का आरोप लगाए जाने के मामलों में वृद्धि हुई है.

हाल ही की एक घटना में, एक कॉमेडी शो में हिंदू भगवान के खिलाफ टिप्पणी करने के लिए कॉमेडियन यश राठी के खिलाफ धारा 153A के तहत शिकायत दर्ज की गई थी. पिछले साल, मराठी अभिनेता केतकी चितले को कथित तौर पर एनसीपी नेता शरद पवार की मानहानि करने वाली एक फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार किया गया था.

ऐसे ही ज्ञानवापी मस्जिद के संबंध में सोशल मीडिया पोस्ट शेयर करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर को गिरफ्तार किया गया और पैगंबर मुहम्मद के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी करने के लिए बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा गिरफ्तार हुईं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से भी हाल के वर्षों में इन मामलों के रजिस्ट्रेशन में वृद्धि का पता चलता है. धारा 153A और 153B के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की संख्या 161% बढ़ गई है- 2014 में 648 से बढ़कर 2021 में 1695 हो गई है. जबकि दर्ज किए गए मामलों की संख्या 2014 में 336 से 228% बढ़कर 2021 में 1104 हो गई है.

हालांकि, सजा की दर लगातार कम रही है - 2015-2021 तक औसतन 18 प्रतिशत.

IPC के इन प्रावधानों के मूल में सार्वजनिक व्यवस्था सुनिश्चित करने और देश के सांप्रदायिक ताने-बाने को बिगाड़ने के दुर्भावनापूर्ण और लक्षित प्रयासों को रोकने की आवश्यकता है.

लेकिन जैसा कि पिछले उदाहरणों से पता चला है, इन प्रावधानों को अक्सर राय की वास्तविक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने के लिए लागू किया जाता है. इस तरह के प्रावधानों को लागू करने में, असली परीक्षा यह सुनिश्चित करने में निहित है कि वे भाषण और अभिव्यक्ति की अत्यधिक पोषित स्वतंत्रता का अतिक्रमण न करें.

अरुंधति रॉय के अपने शब्दों में, उनका भाषण "न्याय की पुकार" था. अभियोजन पक्ष को सावधान रहना चाहिए कि वह कहीं न्याय के उद्देश्य को ही कुचल न दे.

(नवेद महमूद अहमद और आयुषी शर्मा क्रमशः विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में आपराधिक न्याय में सीनियर रेजिडेंट फेलो और रिसर्च फेलो हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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