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चुनाव अक्सर एक ही मुद्दे पर लटके रहते हैं जिसका केंद्र बिंदु एक ही नेता होता है. लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री (सीएम) अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी (Arvind Kejriwal arrest) ने विपक्षी गुट को उनके चुनावी अभियान के लिए रसद पहुंचा दी गयी, जो मोदी हमले के बीच तेजी से कमजोर हो रहा था.
प्रवर्तन निदेशालय (ED) के हाथों देर रात अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी की निंदा करने के लिए पहली बार विपक्षी नेताओं ने एक स्वर में आवाज उठाई. AAP की सबसे कटु प्रतिद्वंद्वी और आलोचक, कांग्रेस पार्टी द्वारा दिया गया समर्थन अधिक महत्वपूर्ण था.
किसी ऐसे व्यक्ति को इससे अधिक संतुष्ट करने वाले संकेत नहीं मिल सकते, जिसके कटु स्वभाव और राजनीति की टकराववादी शैली ने उसे विपक्षी एकता के हाशिए पर रखा है. केजरीवाल ने अपनी पार्टी के लिए विपक्षी गठबंधन, INDIA (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस) ब्लॉक में जगह बनाई, लेकिन इससे पहले उनके कुछ अप्रिय विवाद और धमकी भरा लहजा सुर्खियां बटोर रहा था.
केजरीवाल दिल्ली सहित तीन राज्यों में लोकसभा चुनाव की शीट शेयरिंग के लिए कांग्रेस को डराने-धमकाने में भी सफल रहे. वहीं जिस पंजाब में उनकी पार्टी फिलहाल सत्ता में है, वहां कोई गठबंधन नहीं किया.
हालांकि, केजरीवाल की गिरफ्तारी उनके राजनीतिक पथ में एक नए चरण का प्रतीक है. केजरीवाल न केवल ईडी और सीबीआई के टारगेट पर आने वाले विपक्षी नेताओं की लंबी कतार में सबसे नए हैं, बल्कि वह गिरफ्तार होने वाले पहले सीटिंग सीएम भी हैं. वह भी लोकसभा चुनाव घोषित होने और प्रचार शुरू होने के बाद.
यह स्थिति केजरीवाल को खुद को लोकतंत्र के शुभंकर/ मैस्कॉट के रूप में विकसित करने का मौका देती है. यह इन्हें 1977 की गूंज के साथ खुद चुनाव अभियान की धुरी बनने की अनूठी स्थिति में रखता है. याद कीजिए 1977 में जब आपातकाल के बाद एकजुट विपक्ष का नारा बन था- 'इंदिरा हटाओ, देश बचाओ'.
केजरीवाल को आगे आना चाहिए और खुद लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहिए, चाहे वह जेल में हों या बाहर. 1977 में जॉर्ज फर्नांडिस ने जेल से चुनाव लड़कर जीत हासिल कर एक शानदार मिसाल कायम की थी.
इससे एक साल पहले यानी 1987 में वीपी सिंह ने राजीव गांधी सरकार में रक्षा मंत्री का पद छोड़ा था, फिर कांग्रेस से और अंततः लोकसभा से भी इस्तीफा दे दिया था.
इस घटनाक्रम ने सरकार को हिलाकर रख दिया, लेकिन वीपी सिंह लगभग एक साल तक अजीब तरह से निष्क्रिय रहे. दूसरी तरफ जनता कार्रवाई के लिए अधीर हो गई थी. यहां तक कि 1988 में तत्कालीन सांसद अमिताभ बच्चन के इस्तीफे के बाद वीपी सिंह को इलाहाबाद से लोकसभा उपचुनाव लड़ने की भी इच्छा नहीं थी.
उनको राजी करने के लिए शुभचिंतकों को काफी समझाने-बुझाने की जरूरत पड़ी. फिर भी, उन्होंने अपना नामांकन पत्र दाखिल करने से कुछ घंटे पहले यह घोषणा करके फिर बाधा डाल दी कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगे. इस घोषणा से विपक्ष में हड़कंप मच गया और एक बार फिर शुभचिंतक मान-मनौवल के लिए दौड़ पड़े.
उस उपचुनाव से विपक्ष उत्साहित हो गया और वीपी सिंह तेजी से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के केंद्र बन गए. अंततः 1989 में राजीव गांधी और कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया गया. अगर वीपी सिंह 1988 में चुनावी मैदान में नहीं उतरे होते, तो कहानी काफी अलग हो सकती थी.
कोई भी दो चुनाव एक जैसे नहीं होते. इसलिए, तब और अब के चुनाव को एक तराजू पर तौलना गलत होगा. दो प्रमुख अंतर हैं जिन पर विचार करने की आवश्यकता है. एक, वीपी सिंह और उनसे पहले जयप्रकाश नारायण को सक्रिय नेताओं ने बढ़ावा दिया था जिन्होंने विपक्ष को एकजुट करने के लिए पर्दे के पीछे काम किया था. समाजवादियों ने जनता पार्टी को एकजुट किया जिसने इंदिरा विरोधी समूह को सत्ता में लाने के लिए जेपी के विशाल कद का इस्तेमाल किया.
वीपी सिंह के पास लोकदल नेता देवीलाल और कई अन्य समाजवादी थे जिन्होंने उनके लिए जनता दल तैयार किया. गौरतलब है कि वीपी सिंह ने खुद दौड़ नहीं लगाई थी.
तमाम असमानताओं के बावजूद, यह ऐसा जोखिम है जो लेने लायक हो सकता है. INDIA गुट के तरकश में फिलहाल ज्यादा तीर नहीं हैं. लोकतंत्र को बचाने के लिए एक चेहरे के पीछे एकजुट होना, उसके लिए जरूरी हथियार साबित हो सकता है. लेकिन इसके लिए, केजरीवाल को अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगानी होगी और चुनावी मैदान में उतरते समय भी पीएम उम्मीदवार के बजाय अभियान का निर्णायक प्रतीक बनना होगा.
गेंद उनके पाले में है कि वे बाकी विपक्ष तक पहुंचें और इसको सफल बनाए. मोदी और बीजेपी को वाकओवर देने के बजाय एक योग्य चुनौती पेश करें.
इस मौके का फायदा उठाना केजरीवाल पर निर्भर है. वह अपने तीखेपन को नरम कर सकते हैं, अन्य विपक्षी नेताओं के साथ अधिक सहमतिपूर्ण दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं और अपने डेढ़ राज्य की सत्ता से आगे बढ़कर एक राष्ट्रीय नेता के रूप में अपना कद बड़ा कर सकते हैं. या दूसरी तरफ वे फिर वह अपने अहंकार पर कायम रह सकते हैं और दूसरों को छोड़कर राजनीति की अपनी लोन वुल्फ शैली को आगे बढ़ा सकते हैं. लेकिन यह दूसरा विकल्प उन्हें बहुत दूर तक नहीं ले जाएगा.
केजरीवाल के बड़े होने का समय आ गया है. वह अब भारतीय राजनीति के 'शरारती बच्चे' नहीं रह सकते. उनकी यह शैली तब काम आई थी जब उन्हें और उनकी नौसिखिया पार्टी को सुर्खियां बटोरनी थीं और खबरों में बने रहना था. लेकिन आगे का रास्ता परिपक्वता और संतुलित सोच की मांग करता है, खासकर तब जब उसे कुछ समय के लिए जेल में रहना हो.
(आरती आर जेरथ दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका X हैंडल @AratiJ है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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