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उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर सियासी सरगर्मियां बढ़ती जा रही हैं. ओमप्रकाश राजभर (OP Rajbhar) और असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की अगुवाई में 10 छोटी पार्टियों के गठजोड़ वाले ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ ने सत्ता में भागीदारी का नया फॉर्मूला पेश करके राज्य की राजनीति में नए समीकरण गढ़ने की कोशिश की है. राजभर ने ऐलान किया है कि अगर उनका मोर्चा सत्ता में आएगा तो 5 साल में 5 मुख्यमंत्री और 20 उपमुख्यमंत्री बनाए जाएंगे. इनमें चार अलग-अलग पिछड़ी और दलित जातियों से होंगे और एक साल के लिए मुस्लिम मुख्यमंत्री होगा. उनका ये ऐलान परंपरागत रुप से सपा-बसपा के समर्थक मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में खींचने की क़वायद है.
सत्ता में भागीदारी के इस नए फॉर्मूले का विश्लेषण करने से पहले इस बात को समझना चाहिए कि राजभर-ओवैसी गठजोड़ कितना व्यावहारिक है? ओमप्रकाश राजभर शुरू से ही दलित और पिछड़ी जातियों के गठजोड़ की राजनीति कर रहे हैं. हिंदू समाज में वह मनुवाद और ब्राह्मणवाद के प्रबल विरोधी माने जाते हैं.
दूसरा अहम सवाल यह है कि भागीदारी संकल्प मोर्चा में 'पसमांदा' यानि पिछड़े मुसलमानों की भागीदारी क्यो नहीं है. राजभर की पार्टी समेत बाक़ी सभी पार्टियां दलित और पिछड़े समाज की नुमाइंदगी करने वाली हैं. सिर्फ़ असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मुसलमानों की नुमाइंदगी करती है.
राजभर को अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से मुस्लिम समाज में पिछड़ों की वकालत और नुमाइंदगी करने वाले दलों को अपने साथ रखना चाहिए था. हिंदू समाज के दलित और पिछड़ी जातियों के संगठनों की एकता मुस्लिम समाज के पसमांदा बिरादरी यानि पिछड़ी जातिओं के साथ हो सकती है ,अशरफ़िया यानि अगड़े समाज के साथ नहीं.
मुस्लिम समाज में भी हिंदू समाज की तरह ही अगड़े-पिछड़े का फ़र्क है. भेदभाव है. हिंदू समाज में ब्राह्मण समाज की अगुवाई करते हैं. इसी तरह मुसलमानों में भी पिछड़े और दलित तबके पर अशरफ़िया तबक़ा यानि शेख़, सैयद, मुग़ल और पठान ही राज करते हैं. मुस्लिम समाज में इनके वर्चस्व को ही सैय्यदवाद कहा जाता है.
इसी सैय्यदवाद ने किसी पार्टी में पसमांदा यानी पिछड़े मुसलमानों के नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया. असदुद्दीन ओवैसी भी इसी सैय्यदवाद के वाहक हैं. उनकी पार्टी में तमाम ऊंचे पदों पर अशराफ़िया तबक़े के लोग ही बैठे हुए हैं. पार्टी के दोनों सांसद और विधायक भी अशराफ़िया तबक़े से ही ताल्लुक़ रखते हैं. उनकी पार्टी में पिछड़े मुसलमानों के लिए कोई ख़ास जगह नहीं है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि भारत में मुस्लिम समाज का लगभग 80% हिस्सा पिछड़ा है. लेकिन सभी राजनीतिक दलों में 20% हिस्से वाले अशराफ़िया तबक़े का वर्चस्व रहा है. आज़ादी के बाद से लगातार यही स्थिति बनी हुई है. सभी पार्टियों को मुसलमानों के एकजुट वोट चाहियें. उन्हें लगता है कि किसी मुसलमान को अपनी पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी देकर सभी मुसलमानों के वोट हासिल किया जा सकता है.
मुस्लिम समाज के अशराफ़िया तबक़े को पसमांदा यानि पिछड़े मुसलमानों का नेतृत्व किसी भी सूरत में कुबूल नहीं है. अशराफ़िया दलित-पिछड़ी जातियों के नेतृत्व को तो खुशी से कुबूल कर लेता है लेकिन अपने ही समाज में उसी स्तर वाले नेताओं का नेतृत्व उसे स्वीकार नहीं. नेतृत्व तो दूर की बात है उन्हें सांसद विधायक बनाने लायक नहीं समझता. चुनावी नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि जब-जब पिछड़े मुसलमानों ने राजनीति में आगे बढ़ने की कोशिश की है तब-तब अशराफ़िया ने उसकी टांग खींची है. धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर उनकी जगह दूसरी पार्टियों का साथ दिया है.
2008 में वजूद में आई पीस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पिछड़े मुसलमानों को नेतृत्व देने की कोशिश की थी. इसके अध्यक्ष डॉ अयूब 'अंसारी' बिरादरी से आते हैं. लेकिन अपने नाम में वो अंसारी नहीं लिखते. वो अपना नाम डॉक्टर अय्यूब सर्जन लिखते थे. उनके बारे में मुस्लिम समाज में उनकी बिरादरी लेकर असमंजस बना रहा.
अब सवाल यह उठता है कि अगर दलित-पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियों में अगर पसमांदा मुसलमानों के नेतृत्व को तवज्जो नहीं मिलेगी तो वो कहां जाएंगे ? ब्राह्मणवाद और मनुवादी व्यवस्था के धुर विरोधी राजनीतिक दल भी अगर सैय्यदवाद के पोषक दलों के साथ ही चुनावी गठबंधन करेंगे तो फिर सामाजिक न्याय की अवधारणा ही बेमानी है. ऐसे में यह सवाल अपनी जगह और पुख्ता हो जाता है कि देश के मौजूदा हालात में पसमांदा मुसलमानों को संसद और विधानसभाओं में नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी कैसे मिलेगी?
(यूसुफ अंसारी सीनियर जर्नलिस्ट हैं. यह एक ओपिनियन पीस है.यहां छपे विचार लेखक के अपने हैं. इनसे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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