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ओवैसी-राजभर गठजोड़ में शामिल नहीं पिछड़े मुसलमान, फिर कैसे होगा सामाजिक न्याय?

UP Elections 2022- जाति आधारित गठबंधन में धर्म आधारित राजनीति करने वाली पार्टी का क्या काम?

युसूफ अंसारी
नजरिया
Published:
UP में OP राजभर की पार्टी के साथ चुनाव लड़ेगी AIMIM
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UP में OP राजभर की पार्टी के साथ चुनाव लड़ेगी AIMIM
(फोटो: Altered by Quint)

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उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर सियासी सरगर्मियां बढ़ती जा रही हैं. ओमप्रकाश राजभर (OP Rajbhar) और असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की अगुवाई में 10 छोटी पार्टियों के गठजोड़ वाले ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ ने सत्ता में भागीदारी का नया फॉर्मूला पेश करके राज्य की राजनीति में नए समीकरण गढ़ने की कोशिश की है. राजभर ने ऐलान किया है कि अगर उनका मोर्चा सत्ता में आएगा तो 5 साल में 5 मुख्यमंत्री और 20 उपमुख्यमंत्री बनाए जाएंगे. इनमें चार अलग-अलग पिछड़ी और दलित जातियों से होंगे और एक साल के लिए मुस्लिम मुख्यमंत्री होगा. उनका ये ऐलान परंपरागत रुप से सपा-बसपा के समर्थक मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में खींचने की क़वायद है.

अव्यवहारिक है राजभर-ओवैसी गठजोड़

सत्ता में भागीदारी के इस नए फॉर्मूले का विश्लेषण करने से पहले इस बात को समझना चाहिए कि राजभर-ओवैसी गठजोड़ कितना व्यावहारिक है? ओमप्रकाश राजभर शुरू से ही दलित और पिछड़ी जातियों के गठजोड़ की राजनीति कर रहे हैं. हिंदू समाज में वह मनुवाद और ब्राह्मणवाद के प्रबल विरोधी माने जाते हैं.

इसके उलट असदुद्दीन ओवैसी धार्मिक आधार पर मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट करने की राजनीति कर रहे हैं. उनकी पार्टी का नाम ही ‘ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन’ है. इसका मतलब है राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों को एकजुट करने वाली पार्टी. सबसे बड़ा सवाल यही है कि जाति आधारित राजनीति करने वाली पार्टियों के गठजोड़ में धर्म आधारित राजनीति करने वाली पार्टी का क्या काम है. लिहाज़ा यह गठजोड़ बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है.

साथ में पसमांदा मुसलमान क्यों नहीं?

दूसरा अहम सवाल यह है कि भागीदारी संकल्प मोर्चा में 'पसमांदा' यानि पिछड़े मुसलमानों की भागीदारी क्यो नहीं है. राजभर की पार्टी समेत बाक़ी सभी पार्टियां दलित और पिछड़े समाज की नुमाइंदगी करने वाली हैं. सिर्फ़ असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मुसलमानों की नुमाइंदगी करती है.

सवाल यह है कि जब राजभर हिंदू समाज की दलित-पिछड़ी जातियों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने धार्मिक आधार पर लोगों को एकजुट करने वाली पार्टी को अपने साथ क्यों रखा है?

राजभर को अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से मुस्लिम समाज में पिछड़ों की वकालत और नुमाइंदगी करने वाले दलों को अपने साथ रखना चाहिए था. हिंदू समाज के दलित और पिछड़ी जातियों के संगठनों की एकता मुस्लिम समाज के पसमांदा बिरादरी यानि पिछड़ी जातिओं के साथ हो सकती है ,अशरफ़िया यानि अगड़े समाज के साथ नहीं.

सैय्यदवाद के वाहक हैं ओवैसी

मुस्लिम समाज में भी हिंदू समाज की तरह ही अगड़े-पिछड़े का फ़र्क है. भेदभाव है. हिंदू समाज में ब्राह्मण समाज की अगुवाई करते हैं. इसी तरह मुसलमानों में भी पिछड़े और दलित तबके पर अशरफ़िया तबक़ा यानि शेख़, सैयद, मुग़ल और पठान ही राज करते हैं. मुस्लिम समाज में इनके वर्चस्व को ही सैय्यदवाद कहा जाता है.

इसी सैय्यदवाद ने किसी पार्टी में पसमांदा यानी पिछड़े मुसलमानों के नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया. असदुद्दीन ओवैसी भी इसी सैय्यदवाद के वाहक हैं. उनकी पार्टी में तमाम ऊंचे पदों पर अशराफ़िया तबक़े के लोग ही बैठे हुए हैं. पार्टी के दोनों सांसद और विधायक भी अशराफ़िया तबक़े से ही ताल्लुक़ रखते हैं. उनकी पार्टी में पिछड़े मुसलमानों के लिए कोई ख़ास जगह नहीं है.

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अशराफिया का वर्चस्व

यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि भारत में मुस्लिम समाज का लगभग 80% हिस्सा पिछड़ा है. लेकिन सभी राजनीतिक दलों में 20% हिस्से वाले अशराफ़िया तबक़े का वर्चस्व रहा है. आज़ादी के बाद से लगातार यही स्थिति बनी हुई है. सभी पार्टियों को मुसलमानों के एकजुट वोट चाहियें. उन्हें लगता है कि किसी मुसलमान को अपनी पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी देकर सभी मुसलमानों के वोट हासिल किया जा सकता है.

कांग्रेस से लेकर यूपी में सपा-बसपा, रालोद और बिहार में राजद, जेडीयू, और एलजेपी तक इसी फार्मूले पर चले. कांग्रेस में जहां अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद सलमान ख़ुर्शीद जैसे नेताओं का वर्चस्व रहा वहीं समाजवादी पार्टी में आज़म ख़ान और बीएसपी में नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी नंबर दो की स्थिति में रहे. इन सभी का अशरफ़िया तबके से ताल्लुक रहा. इनके रहते किसी भी पार्टियों में पसमांदा जानी पिछड़े मुसलमानों का नेतृत्व उभर नहीं पाया.

अशराफिया को नहीं कुबूल पसमांदा नेतृत्व

मुस्लिम समाज के अशराफ़िया तबक़े को पसमांदा यानि पिछड़े मुसलमानों का नेतृत्व किसी भी सूरत में कुबूल नहीं है. अशराफ़िया दलित-पिछड़ी जातियों के नेतृत्व को तो खुशी से कुबूल कर लेता है लेकिन अपने ही समाज में उसी स्तर वाले नेताओं का नेतृत्व उसे स्वीकार नहीं. नेतृत्व तो दूर की बात है उन्हें सांसद विधायक बनाने लायक नहीं समझता. चुनावी नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि जब-जब पिछड़े मुसलमानों ने राजनीति में आगे बढ़ने की कोशिश की है तब-तब अशराफ़िया ने उसकी टांग खींची है. धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर उनकी जगह दूसरी पार्टियों का साथ दिया है.

पीस पार्टी की नाकाम कोशिश

2008 में वजूद में आई पीस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पिछड़े मुसलमानों को नेतृत्व देने की कोशिश की थी. इसके अध्यक्ष डॉ अयूब 'अंसारी' बिरादरी से आते हैं. लेकिन अपने नाम में वो अंसारी नहीं लिखते. वो अपना नाम डॉक्टर अय्यूब सर्जन लिखते थे. उनके बारे में मुस्लिम समाज में उनकी बिरादरी लेकर असमंजस बना रहा.

शुरू में उनकी पार्टी का खूब जलवा रहा. लेकिन जैसे ही मुसलमानों के बीच यह बात फैली के डॉक्टर अयूब अंसारी हैं, अशराफ़िया तबक़े ने उनका ज़ोरदार विरोध शुरू कर दिया. उन पर बीजेपी का एजेंट होने का आरोप लगाया गया. योगी आदित्यनाथ से सांठगांठ के आरोप लगें. 2012 में 4 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली पीस पार्टी अगले चुनाव में इस हालत में पहुंच गई कि डॉक्टर अय्यूब अपनी ख़ुद की सीट भी नहीं बचा सके.

अब सवाल यह उठता है कि अगर दलित-पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियों में अगर पसमांदा मुसलमानों के नेतृत्व को तवज्जो नहीं मिलेगी तो वो कहां जाएंगे ? ब्राह्मणवाद और मनुवादी व्यवस्था के धुर विरोधी राजनीतिक दल भी अगर सैय्यदवाद के पोषक दलों के साथ ही चुनावी गठबंधन करेंगे तो फिर सामाजिक न्याय की अवधारणा ही बेमानी है. ऐसे में यह सवाल अपनी जगह और पुख्ता हो जाता है कि देश के मौजूदा हालात में पसमांदा मुसलमानों को संसद और विधानसभाओं में नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी कैसे मिलेगी?

(यूसुफ अंसारी सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. यह एक ओपिनियन पीस है.यहां छपे विचार लेखक के अपने हैं. इनसे क्‍व‍िंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)

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